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ऋषभनाथ भगवान कैलाश पर्वत पर से मुक्त हुए, पश्चात् त्रे सिद्धालय में उर्ध्वगमन स्वभाव वश पहुँचे । इस दृष्टि से प्रथम मुक्तिस्थल ऋषभनाथ भगवान की अपेक्षा कैलाश पर्वत है, वासुपूज्य भगवान की दृष्टि से चंपापुर है, नेमिजिनेन्द्र की अपेक्षा गिरनार प्रर्थात् ऊर्जयन्तगिरि है, वर्धमान भगवान की अपेक्षा पावापुर है और शेष बीस तीर्थंकरों की अपेक्षा सम्मेदशिखर निर्वाण स्थल है । निर्वाण काण्ड में कहा है
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तीर्थंकर
अट्ठावर्याम्म सहो चंपाए वासुपुज्जजिणना हो । उज्जेते मिजिणो पावाए णिव्वुदो महावीरो ॥ १ ॥
वीसं तु जिणवरदा श्रमरासुरवंदिदा धुदकिलेसा । सम्मेदे गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेंसि ॥२॥
महत्व की बात
सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होगा कि केवलज्ञान होने के पश्चात् भगवान का परम श्रदारिक शरीर पृथ्वीतल का स्पर्श नहीं करता है; इसलिए मोक्ष जाते समय उन्होंने भूतल का स्पर्श किया होगा यह विचार उचित नहीं है । भगवान के कर्म- जाल से छूटने का असली स्थान आकाश के वे प्रदेश हैं, जिनको मुक्त होने के पूर्व उनके परम पवित्र देह ने व्याप्त किया था । तिलोयपण्णत्ति में क्षेत्र - मंगल पर प्रकाश डालते हुए लिखा है :
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एदस्स उदाहरणं पावा-णगरुज्जयंत- चंपादी ।
आहुट्ठ- हत्थ पहुदी - पणुवीस- बभ र-बभ हिय-पणस्यधर्णाणि ॥
देहश्रवदि केवलणाणावदुद्ध - गयणदेसो वा ।
सेढ़ि-घणमेत्त - श्रप्पप्पदे सगदलोयपुरणा पुण्ण्णा ॥१--२२. २३॥ इस क्षेत्र मंगल के उदाहरण पावानगर, उर्जयन्त और चंपापुर आदि हैं; अथवा साढ़े तीन हाथ से लेकर पांच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण शरीर में स्थित और केवलज्ञान से व्याप्त आकाश प्रदेशों को क्षेत्र मंगल समझना चाहिए; अथवा जगत् श्रेणी के घन मात्र ग्रर्थात्
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