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________________ तीर्थकर [ २७७ के उद्यान में संपन्न हुआ था । पूज्यपाद स्वामी ने निर्वाण भक्ति में लिखा है : परिनिर्वृतं जिनेन्द्रं ज्ञात्वा विबुधा ह्ययाशु चागम्य । वे वतरु- रक्तचन्दन - कालागुरु-सुरभि गोशीर्षैः ॥ १८ ॥ अग्रींद्राज्जिनदेहं मकुटानल-सुरभिधूप-वरमात्यैः । अभ्यर्च्य गणधरानपि गता दिवं खं च वनभवजे ॥ १६ ॥ महावीर भगवान के मोक्ष कल्याणक का संवाद अवगत कर देव लोग शीघ्र ही आए । उन्होंने जिनेश्वर के देह की पूजा की तथा देवदारू, रक्त चन्दन, कृष्णागुरु, सुगंधित गोशीर चन्दन के द्वारा और अग्निकुमार देवों के इंद्र के मुकुट से उत्पन्न अग्नि तथा सुगंधित धूप तथा श्रेष्ठ पुष्पों द्वारा शरीर का दाहसंस्कार किया । गणधरों की भी पूजा करने के पश्चात् कल्पवासी, ज्योतिषी, व्यंतर तथा भवनवासी देव अपने अपने स्थान चले गए । अशग कवि कृत वर्धमान चरित्र में भी भगवान के अंतिम शरीर के दाह संस्कार का इस प्रकार कथन आया है : श्रनन्द्रमौलि - वररत्न-विनिर्गतेग्नौ । कर्पूर- लोह - हरिचन्दन - सारकाष्ठैः ॥ संक्षिते सपदि वातकुमारनार्थः । इंद्रो मुदा जिनपते जुहुवुः झरीरं ।।१८--१००॥ अग्नीन्द्र के मुकुट के उत्कृष्ट रत्न से उत्पन्न अग्नि में, जो कपूर, गुरु, हरिचन्दन, देवदारु आदि सार रूप काष्ठ से तथा वायुकुमारों के इंद्रों द्वारा शीघ्र ही प्रज्वलित की गई थी, इंद्रों ने प्रभु के शरीर का सहर्ष दाह-संस्कार किया । हरिवंशपुराण में नेमिनाथ भगवान के परिनिर्वाण पर की गई पूजादि का इस प्रकार कथन किया गया है : हरिवंशपुराण का कथन परिनिर्वाण -कल्याणपूजामंत्यशरीरगाम् । चतुविधसुराः जैनी वत्रु : शक्रपुरोगमाः ॥६५–११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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