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________________ तीर्थकर [ २७१ कवि गण कल्पना द्वारा जिस अनंत की स्तुति करते हैं, वह अनंत सिद्ध भगवान रूप है। भगवान तो कर्मों का विनाश होते ही सिद्ध परमात्मा हो गए । अतः अब कैलाशगिरि पर ऋषभनाथ प्रभु का दर्शन नहीं होता है । अब वे चिरकाल के लिए इन्द्रियों के अगोचर हो गए। गोम्मटसार कर्मकांड की टीका में लिखा है--अयोगे मरणं कृत्वा भव्याः यांतिशिवालयं । (पृ० ७६२, गाथा ५५६)। मोक्ष-कल्याणक की विधि अब भगवान शिवालय में विराजमान हैं और उनका चैतन्य शून्य शरीर मात्र अष्टापद गिरि पर दृष्टिगोचर होता है । भगवान के निर्वाण होने की वार्ता विदित कर इन्द्र निर्वाण कल्याणक की विधि सम्पन्न करने को वहाँ आए । मोही व्यक्ति उस प्राणहीन देह को शव मान व्यथित होते थे, क्योंकि वे इस तत्व से अपरिचित थे कि भगवान की मृत्यु नहीं हुई । वे तो अजर तथा अमर हो गए । वे परम शिव हो गए। मृत्यु की मृत्यु __ यथार्थ में उन प्रभु ने मृत्यु के कारण कर्म का क्षय किया है अतएव यह कहना अधिक सत्य है कि आज मृत्यु की मृत्यु हुई है । भगवान ने मृत्यु को जीतकर अमृत्यु अर्थात् अमृतत्व की स्थिति प्राप्त की है । उस समय देव देवेन्द्रों ने आकर निर्वाणोत्सव किया । भरत का मोह ___महाज्ञानी चक्रवर्ती भरत को मोहनीय कर्म ने घेर लिया । उनके क्षेत्र से अश्रुधारा बह रही थी। सभवतः उन्होंने भगवान के शिवगमन को अपने पिता की मृत्यु के रूप में सोचा । भरत की मनोवेदना कौन कह सकता है ? चक्रवर्ती की दृष्टि में भगवान के अनन्त उपकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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