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________________ २६६ ] सिद्धालय में निगोदिया सिद्धलोक में सभी सिद्ध जीवों का ही निवास है, ऐसा सामान्यतया समझा जाता है, किन्तु आगम के प्रकाश में यह भी ज्ञात होता है कि अनन्तानंत सूक्ष्म निगोदिया जीव सर्वत्र लोक में भरे हैं । गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहा है " सव्वत्थ णिरंतरा सुहुमा" (१८४) सूक्ष्म जीव सर्वत्र निरन्तर भरे हैं । संस्कृत टीका में लिखा है, “सर्वलोके जले स्थले आकाशे वा निरंतरा आधारानपेक्षितशरीराः जीवाः सूक्ष्मा भवंति " ( पृ० ४१९ ) । अतः वे जीव सिद्धालय में भी भरे हुए हैं । इससे यह सोचना कि उन निगोदिया जीवों को कुछ विशेष सुख की प्राप्ति होगी, अनुचित है; क्योंकि प्रत्येक जीव सुख दुःख का संवेदन अपने कर्मोदय के अनुसार करता है । इस नियम के अनुसार निगोदिया जीव कर्माष्टक के द्वारा कष्टों के समुद्र में डूबे रहते हैं और उसी आकाश के क्षेत्र में विद्यमान आत्मप्रदेशवाले सिद्धभगवान ग्रात्मोत्थ, परमशुद्ध, निराबाध आनन्द का अनुभव करते हैं । अक्षर के अनंतवें भाग ज्ञानवाली तथा अनंतज्ञान वाली शुद्धात्मा एक ही स्थान पर निवास करती हैं । तीर्थंकर स्याद्वाद दृष्टि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा निगोदिया जीव भी सिद्धों के समान कहे जाते हैं, किन्तु परमागम में जिनेन्द्रदेव ने पर्यायदृष्टि का भी प्रतिपादन किया है । उसकी अपेक्षा दोनों का अंतर स्पष्ट है । भूल से एकान्तपक्षी विकारयुक्त दृष्टि के कारण सर्वथा सब जीवों को सिद्ध समान समझ बैठते हैं और धर्माचरण में प्रमादपूर्ण बन जाते हैं । स्याद्वाद दृष्टि का आश्रय लिए बिना यथार्थ रहस्य ज्ञात नहीं हो पाता है । सिद्धों द्वारा लोक कल्याण प्रश्न – कोई यह सोच सकता है कि भगवान में अनंतज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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