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भगवान की महत्वपूर्ण साधना
इस प्रसंग में यह बात ध्यान देने योग्य है कि क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती निर्ग्रन्थ ने एकत्व - वितर्क - प्रवीचाररूप द्वितीय शुक्ल ध्यान के द्वारा केवलज्ञान की विभूति प्राप्त की थी। राजवार्तिक में केवली भगवान के लिए इन विशेषणों का प्रयोग किया गया है, “एकत्ववितर्क - शुक्लध्यान - वैश्वानर- निर्दग्धघातिकर्मेन्धनः, प्रज्वलितकेवलज्ञान- गभस्तिमंडल : " ( पृ० ३५६ ) अर्थात् एकत्व - वितर्क नामक शुक्लध्यान रूप अग्नि के द्वारा घातिया कर्मरूपी ईन्धन का नाश करने वाले तथा प्रज्वलित केवलज्ञान रूपी सूर्ययुक्त केवली भगवान हैं ।
प्रश्न
शुक्ल ध्यान का तृतीय भेद उस समय होता है, जब यु कर्म के क्षय के लिए अंतर्मुहूर्त काल शेष रहता है; अतएव प्रश्न होता है कि आठ वर्ष कुछ अधिक काल में केवली बनकर एक कोटि पूर्व काल में से किंचित् न्यून काल छोड़कर शेष काल पर्यन्त कौनसा ध्यान रहता है ?
समाधान
तीर्थंकर
परमार्थ दृष्टि से 'एकाग्र - चिंता निरोधो ध्यानं' यह लक्षण सर्वज्ञ भगवान में नहीं पाया जाता है । प्रात्म स्वरूप में प्रतिष्ठित होते हुए भी ज्ञानावरण के क्षय होने से वे त्रिकालज्ञ भी हैं, अत: उनके एकाग्रता का कथन किस प्रकार सिद्ध होगा ? चिंता का भी उनके अभाव है । “चिंता अंतः करणवृत्तिः " - अंतःकरण अर्थात् क्षयोपशमात्मक भाव - मन की विशेष वृत्ति चिंता है । क्षायिक केवलज्ञान होने से क्षयोपशम रूप चित्तवृत्ति का सद्भाव ही नहीं है, तब उसका निरोध कैसे बनेगा ? इस अपेक्षा से केवली भगवान के ध्यान नहीं है ।
इस कथन पर पुनः शंका उत्पन्न होती है कि आगम में केवली के दो शुक्ल ध्यान क्यों कहे गए हैं ?
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