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________________ तीर्थकर [ २२९ ने मोह का नाशकर अद्भ त विभूति प्राप्त की है, तब इनके प्रत्यक्ष अभ्युदय को देखते हुए मैं आत्मविशुद्धि के मार्ग में क्यों न उद्योग करूँ ? अतः सब उत्साहित हो स्वयमेव धर्म का शरण लेते थे । प्रभु का प्रभाव हरिवंशपुराण में कहा है कि भगवान के समवशरण में बीस हजार केवली थे । “विशतिस्ते सहस्राणि केवलज्ञानलोचनाः” (१२-- ७४ हरिवंशपुराण) । उनके गणधरों की संख्या ८४ थी। महावीर भगवान के ग्यारह गणधर कहे गए हैं। चौबीस तीर्थंकरों के गणधरों की संख्या चौदह सौ बावन कही गई है। उनमें प्रथम स्थान वृषभदेव गणधर का माना गया है । भगवान के उपदेश का उस समय के सरल-चित्त व्यक्तियों के हृदय पर शीघ्र ही प्रभाव पड़ता था। पहले भगवान ने जो लोगों का उपकार किया था, उसके कारण भी के चित्त में प्रभु के प्रति महान आदर तथा श्रद्धा का भाव था, उस पृष्ठभूमि को देखते हुए भगवान की दिव्यदेशना के प्रभाव का कौन वर्णन कर सकता है ? वृषभनाथ भगवान के द्वारा उस धर्मशून्य युग में पुनः धर्म को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। द्वादशांग श्रुत की रचना भगवान के उपदेश को सुनकर वृषभसेन गणधर ने द्वादशांग वाणी की रचना की। भावश्रुत तथा अर्थपदों के कर्ता तीर्थकर भगवान कहे गए हैं । "भावसुदस्स अत्थपदाणं च तित्थयरो कत्ता' (धवलाटीका भाग १, पृष्ठ ६५) द्रव्यश्रुत के कर्ता गणधरदेव कहे गए हैं । महावीर प्रभु की दिव्यध्वनि को लक्ष्य करके वीरसेनाचार्य ने लिखा है “दव्व-सुदस्स गोदमो कत्ता"--द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर थे। ऋषभदेव तीर्थकर के समय में द्रव्यश्रुत कर्ता वृषभसेन गणनायक थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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