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तीर्थकर
स्वरूप निर्वाण आदि का स्वरूप अपनी दिव्य वाणी के द्वारा निरूपण किया ।' सर्वज्ञ, वीतराग तथा हितोपदेशी जिनेन्द्र की वाणी की महिमा का कौन वर्णन कर सकता है ? सम्राट भरत ने भगवान के श्रीमुख से मुनिदीक्षा लेते समय सांत्वना के शब्द सुने थे, उसके पश्चात् अब प्रभु की प्रिय, मधुर तथा शाँतिदायिनी वाणी सुनने में आई । समवशरण में विद्यमान जीवों को अवर्णनीय आनन्द तथा प्रकाश की उपलब्धि हुई । चिर पिपासित चातक के मुख में मेघबिन्दु पड़कर जैसी प्रसन्नता उत्पन्न करती है, ऐसी ही प्रसन्नता, प्रभु की वाणी को सुनकर, समवशरण के जीवों को प्राप्त हुई थी। प्रभु की वाणी का सम्राट पर क्या प्रभाव पड़ा, इस पर महापुराणकार इस प्रकार प्रकाश डालते हैं :--
भरत चक्रवर्ती द्वारा व्रत-ग्रहरण
ततः सम्यक्त्वशुद्धि च व्रतशुद्धि च पुष्कलाम् । निष्कलात् भरतो भेजे परमानंदमुद्व हन् ॥२४--१६३॥
भगवान की दिव्यदेशना को सुनकर भरत ने परम आनंद को प्राप्त होते हुए सम्यक्त्व शुद्धि तथा व्रतों के विषय में परम विशुद्धता प्राप्त की।
भरतेश्वर ने मानसी शुद्धि भी प्राप्त की थी। जिनसेनस्वामी लिखते हैं :--
तिलोयपण्णत्ति में कहा है कि गणधर देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुसार अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि अन्य समयों में भी निकलती है। कहा भी है :--
सेसेसु समए गणहर देविदं-चक्कवट्टीणं ।
पहाणुरुवमत्थं दिव्वझुणी अ सत्तभंगीहिं ।।४---६०४॥ इस नियम के अनुसार चक्रवर्ती के प्रश्न पर दिव्यध्वनि खिरने लगी कारण गणधर देव के अभाव की पूर्ति चक्रवर्ती की उपस्थिति द्वारा सम्पन्न हो गई।
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