________________
२०६ ]
तीर्थकर जाती है। भगवान के गुणों के चितवन से पवित्र भाव होते हैं, इससे जीवन उज्ज्वल बनता है, इस कारण भगवान की अभिवंदना की जाती है । वृक्ष के नीचे जाने से बिना माँगे स्वयं छाया प्राप्त होती है, इसलिए जिनेन्द्र का शरण ग्रहण करने से स्वयमेव पवित्रता प्राप्त होती है, जिसके पीछे समृद्धियाँ भी चक्कर लगाती हैं ।
महाकवि धनंजय की उक्ति कितनी मार्मिक है :इति स्तुति देव विधाय दैनन्यात् वरं न याचे त्वमुपेक्षकोसि । छायां तरूं संश्रयतः स्वतः स्यात् कश्छायया याचितयाऽऽत्मलाभ-॥३८॥
हे ऋषभनाथ जिनेन्द्र ! इस प्रकार आपका विषापहार-स्तोत्र द्वारा स्तवन करने के पश्चात् मैं आपसे किसी प्रकार के वर की याचना नहीं करता हूँ। कवि के इस कथन पर शंका होती है कि भक्तिपूर्वक भगवान का गुणगान करने के बाद उनसे प्रसाद पाने की प्रार्थना करने में क्यों प्रमाद करते हो ? उनसे फल की प्रार्थना करना तो भक्त का अधिकार है। इस आशंका को दूर करते हुए कवि कहते हैं- तरु का आश्रय लेने वाला स्वयमेव छाया को प्राप्त करता है, अतएव छाया की याचना करने से क्या लाभ है ?
स्तुतिकार आचार्यों, कवियों तथा संतों ने विविध रूप से जिनेन्द्र का गुणगान किया है, किन्तु उसका अंतस्तत्व यही है कि ईश के गुणचिंतन द्वारा विचारशुद्धि होते हैं और व्यक्ति का उज्ज्वल भविष्य उसकी परिशुद्ध तथा सात्विक चित्तवृत्ति पर निर्भर है; अतएव प्रकारान्तर से सुन्दर भाग्य निर्माण में भगवान का सम्बन्ध कथन करना अनुचित नहीं है ।
अहंन की प्रसिद्धि
__ अन्य सम्प्रदाय में केवली शब्द के स्थान में जिनेन्द्रदेव की भईन् या अरिहंत रूप में प्रसिद्धि है । ऋग्वेद में अर्हन् का उल्लेख
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org