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तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षमार्गविवक्षया ।
प्रबतीणं सुतशतं तस्यासीद्ब्रह्मपारगम् ॥१६॥ श्री स्वामी अखण्डानंद सरस्वती ने गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित टीका में उक्त श्लोक के अर्थ में लिखा है "शास्त्रों ने उन्हें (ऋषभदेव को) भगवान वासुदेव का अंश' कहा है।" 'तमाहुर्वासुदेवांश' ये भागवत के शब्द हिन्दू समाज के लिये ध्यान देने योग्य है। उन अषभावतार का क्या प्रयोजन था, यह स्पष्ट करते हुए कहा है, "मोक्षमार्गविवक्षया अवतीर्णम्" --"मोक्ष मार्ग का उपदेश करने के लिए उन्होंने अवतार ग्रहण किया था।" इसका भाष यह है कि ऋषभावतार मे संसार की लीला दिखाने के बदले में संसार से छूटने का उपाय बताने के लिये जन्म धारण किया था । संसार के बंधन से छूटकर मुक्ति को प्राप्त करने का उपाय बताना उनके जन्म धारण का मूल उद्देश्य था। "तस्यासीत् ब्रह्मपारगं सुतशतम्"-"उनके सौ पुत्र थे, जो ब्रह्म विद्या के पारगामी हुए। ब्रह्म विद्या वेदों का अंत (पार) होने से वेदान्त शब्द से कही जाती है। भगवान ऋषभदेव ने जिस ज्ञान धारा का उपदेश दिया, उसे उपनिषद् में 'परा विद्या', श्रेष्ठ-विद्या माना गया है। उन ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के कारण यह देश भारतवर्ष कहलाया । इस विषय में देश की प्राचीनतम जैन विचार धारा तथा वैदिक विचार धारा एक मत है । अतः इस विचार का महत्व तथा मान्यता पूर्णतया न्यायोचित है। भागवत में लिखा है :
तेषां वै भरतो ज्येष्ठः नारायणपरायणः।
विख्यातं वर्षमेत यात्रामा तम् ॥१७॥ उन शत पुत्रों में भरत ज्येष्ठ थे। वे नारायण के परम भक्त थे। ऋषभदेव वासुदेव के अंश होने से नारायण रूप थे। उनके नाम से यह देश, जो पहले अजनाभवर्ष कहलाता था, भारतवर्ष कहलाया। यह देश अलौकिक स्थान था। मार्कण्डेयपुराण', कूर्मपुराण, विष्णुपुराण, लिंगपुराण, स्कन्दपुराण, ब्रह्माण्डपुराण आदि में भी भागवत का समर्थन है। चौबीस
(१) ऋषभात् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशतादरः।
सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं महाप्रावाज्यमास्थितः। हिमाह्वयं दक्षिणं वर्ष भरताय पिता ददौ । तस्माच भारतं वर्ष तस्य नाम्ना महात्मनः ॥३६-४१मार्कण्डेय पु०॥
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