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तीर्थंकर
[ १९९ आज भगवान ने इच्छाओं का अभाव कर दिया है, फिर भी उनके उपदेश आदि कार्य ऐसे लगते हैं, मानों वे इच्छाओं द्वारा प्रेरित हों। इसका यथार्थ में समाधान यह है कि पूर्व की इच्छाओं के प्रसाद से अभी कार्य होता है । जैसे घड़ी में चाभी भरने के पश्चात् बह घड़ी अपने आप चलती है, उसी प्रकार तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते समय जिन कल्याणकारी भावों का संग्रह किया गया था, वे ही बीज अनन्तगुणित होकर विकास को प्राप्त हुए हैं। अतः केवली को अवस्था में पूर्व संचित पवित्र भावना के अनुसार सब जीवों को कल्याणकारी सामग्री प्राप्त होती है ।
कल्पवृक्ष-तुल्य-वारणी
हमें तो दिव्यध्वनि कल्पवृक्ष तुल्य प्रतीत होती है । कल्पवृक्ष से इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार उस दिव्यवाणी के द्वारा आत्मा की समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है । जितनी भी शंकाएँ मन में उत्पन्न होती हैं, उनका समाधान क्षणमात्र में हो जाता है । दिव्यध्वनि के विषय में कुन्दकुन्दाचार्य के सूत्रात्मक ये शब्द बड़े महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं-तिहुवण हिद-मधुर-विसद-वक्काणं" अर्थात् दिव्यध्वनि के द्वारा त्रिभुवन के समस्त भव्य जीवों को हितकारी, प्रिय तथा स्पष्ट उपदेश प्राप्त होता है । जब छद्मास्थ तथा बाल अवस्था वाले महावीर प्रभु के उपदेश के बिना ही दो चारण ऋद्विधारी महामुनियों की सूक्ष्म शंका दूर हुई थी, तब केवलज्ञान, केवलदर्शनादि सामग्री संयुक्त तीर्थंकर प्रकृति के पूर्ण विपाक होने पर उस दिव्यध्वनि के द्वारा समस्त जीवों को उनकी भाषाओं में तत्वबोध हो जाता है, यह बात तनिक भी शंका योग्य नहीं दिखती है । इस दिव्यध्वनि के विषय में धर्मशर्माभ्युदय का यह पद्य बड़ा मधुर तथा भावपूर्ण प्रतीत होता है :
सर्वा भुतमयी सृष्टिः सुधावृष्टिश्च कर्णयोः । प्रावर्तत ततावाणी सर्वविद्येश्वराद्विभोः ॥२१-७॥
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