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________________ तीर्थकर पवन के रोध बिना उत्पन्न हुई, स्पष्ट, श्रोताओं के लिए अभीष्ट तत्व का निरूपण करने वाली सर्वभाषा स्वरूप, समीप तथा दूरवर्ती जीवों को समान रूप से सुनाई पड़ने वाली, शांतिरस से परिपूर्ण तथा उपमा रहित जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि हमारी रक्षा करे। तिलोयपण्णत्ति में इस दिव्यध्वनि के विषय में बताया है कि “यह अठारह महाभाषा, सात सौ लघुभाषा तथा और भी संज्ञा जीवों की भाषा रूप परिणत होती है । यह तालु, दंत, अोष्ठ और कंठ की क्रिया से रहित होकर एक ही समय भव्य जनों को दिव्य उपदेश देती है".---"एक्ककालं भव्वजणे दिव्वभासित्तं" (४-६०२) । अनक्षरात्मक ध्वनि भगवान की दिव्यध्वनि प्रारम्भ में अनक्षारात्मक होती है, इसलिए उस समय केवली भगवान के अनुभय वचनयोग माना है । पश्चात् श्रोताओं के कर्णप्रदेश को प्राप्त कर सम्यक्ज्ञान को उत्पन्न करने से केवली भगवान के सत्यवाक् योग का सद्भाव भी आगम में माना है । गोम्मटसार की संस्कृत टीका में इस प्रसङ्ग पर यह महत्वपूर्ण बात कही है' :-- सयोगी केवली की दिव्यध्वनि को किस प्रकार सत्य-अनुभय वचन योग कहा है ? केवली की दिव्यध्वनि उत्पन्न होते ही अनक्षरात्मक रहती है, इसलिए श्रोताओं के कर्णप्रदेश से सम्बन्ध होने के समय पर्यंत अनुभय भाषापना सिद्ध होता है । इसके पश्चात् श्रोताओं के इष्ट अर्थ के विषय में संशय आदिकों के निराकरण करने १ सयोगकेवलिदिव्यध्वनेः कथं सत्यानुभय-वाग्योगत्वभिति चेत् तन्न तदुत्पत्तावनक्षरात्मकत्वेन श्रोतृ-श्रोत्रप्रदेश-प्राप्ति-समयपर्यन्त-मनुभय- भाषात्व सिद्धेः । तदनंतर च श्रोतृजनाभिप्रेतार्थेषु संशयादि-निराकरणन सभ्यग्ज्ञानजनकत्वेन सत्यवाग्योगत्व-सिद्धेश्च तस्यापि तद्भयत्वघटनात्" पृ० ४८८, गाथा २२७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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