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________________ तीर्थंकर [ १९३ "हे धर्मनाथ जिनेन्द्र ! आपने निर्दोष अवस्था को प्राप्त कर मानव प्रकृति की सीमा का अतिक्रमण किया है अर्थात् मानव समाज में पाई जाने वाली अपूर्णताओं तथा असमर्थताओं से आप उन्मुक्त हैं । ग्राप देवताओं में भी देव स्वरूप है, इसलिए हे स्वामिन् प्राप परमदेवता हैं । हम पर कल्याण के हेतु प्रसन्न हों ।" महत्व की बात योगियों की अद्भुत तपस्याओं के प्रसाद से जो फल रूप में सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनसे समस्त विश्व विस्मय के सिंधु में डूब जाता है । समीक्षक सिद्धियों के अद्भुत परिपाक को देखकर हतबुद्धि बन जाता है । वह यदि इन जिनेन्द्रों की उत्कृष्ट रत्नत्रय धर्म की समाराधना को ध्यान में रखे तो चमत्कारों को देख उसका मस्तक श्रद्धा से विनय मस्तक हुए बिना न रहेगा । दीक्षा लेकर केवलज्ञान पर्यंत महा मौन को स्वीकार करने वाले तीर्थंकरों की वाणी में लोकोत्तर प्रभाव पाया जाता तर्क दृष्टि से पूर्ण संगत तथा उचित है । जब भगवान का प्रभामंडल रूप प्रातिहार्य सहस्त्र सूर्य के तेज को जीतता हुआ तथा समवशरण में दिन रात्रि के भेदों को दूर करता हुआ भव्य जीवों को उनके सात भव दिखाने वाले अलौकिक दर्पण का काम करता है, तब भगवान की दिव्यध्वनि महान चमत्कार पूर्ण प्रभाव दिखावे यह पूर्णतया उचित है । आगम आधार चन्द्रप्रभ काव्य में दिव्यध्वनि के विषय में लिखा है :-- सबभाषा-स्वभावेन ध्वनिनाथ जगद् गुरुः । जगाद गणिनः प्रश्नादिति तत्वं जिनेश्वरः ।। १८ १३ Jain Education International -१॥ जगत के गुरु चन्द्रप्रभ जिनेद्र ने गणधर के प्रश्न पर सर्व भाषा रूप स्वभाव वाली दिव्यध्वनि के द्वारा तत्व का उपदेश दिया । हरिवंशपुराण में भगवान की दिव्यध्वनि को हृदय और कर्ण के लिए For Private & Personal Use Only ▬▬ www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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