________________
तीर्थंकर
[ १७९ (१०) सम-प्रसिद्ध-नखकेशत्व--भगवान् के नख और केश वृद्धि तथा ह्रास शून्य होकर समान रूप में ही रहते हैं । प्रभाचन्द्र
आचार्य ने टीका में लिखा है--"समत्वेन वृद्धि-ह्रासहीनतया प्रसिद्धा नखाश्च केशाश्च यस्य देहस्य तस्य भावस्तत्त्वं” (पृ० २४७) भगवान का शरीर जन्म से ही असाधारणता का पुंज रहा है । आहार करते हुए भी उनके नीहार का अभाव था । केवली होने पर कवलाहार रूप स्थूल भोजन.ग्रहण करना बन्द हो गया । अब उनके परम पुण्यमय देह में ऐसे परमाण नहीं पाए जाते जो नख और केश रूप अवस्था को प्राप्त करें। शरीर में मल रूपता धारण करने वाले परमाणुओं का अब आगमन ही नहीं होता। इस कारण नख और केश न बढ़ते हैं और न घटते ही हैं।
देवकृत अतिशय
जिनेन्द्र भगवान के देवकृत चतुर्दश अतिशय उत्पन्न होते हैं।' (१) दशों दिशायें निर्मल हो गई थीं। (२) आकाश मेघपटल रहित हो गया था। (३) पृथ्वी धान्यादि से सुशोभित हो गई थी। इस विषय में महापुराणकार कहते हैं ।
परिनिष्पन्नशाल्यादि-सस्यसंपन्मही तदा। उद्भूतहर्ष-रोमांचा स्वामिलाभादिवाभवत् ॥२५--२६६।
१ देवकृत चौदह अतिशय इस प्रकार हैं :देवरचित हैं चारदश, अर्धमागधी भाष । आपसमाही मित्रता, निर्मल दिश आकाश ।। होत फूल फल ऋतु सबै, पृथिवी काच समान । चरण कमल तल कमल है, नमते जय जय बान ।। मन्द सुगंध बयारि पुनि, गंधोदक की वृष्टि । भूमि विर्षे कण्टक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि ।। धर्मचक्र आगे रहै, पुनि वसु मंगलसार । प्रतिशय श्रीअरहंतके, ये चौतीस प्रकार ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org