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________________ १४८ ] तीर्थंकर मोह से महायुद्ध अब वे मोह शत्रु का पूर्णतया संहार करने का प्रयत्न कर रहे हैं । वे प्रभु पहले भी मोहनीय कर्म से युद्ध कर चुके हैं । इस भव से दो भव पहले वे वज्रनाभि चक्रवर्ती थे। उस समय उन्होंने अपने पिता वनसेन तीर्थंकर के पादमूल में निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर षोड़श कारण भावनाओं का चितवन किया था। महापुराण में कहा है : ततोऽसौ भावयामास भावितात्मा सुधीरधीः । स्वगुरोनिकटे तीर्थकृत्वस्यांगानि षोडशः ॥११-६८॥ आत्मा का चितवन करने वाले धीरवीर वज्रनाभि मुनिराज ने अपने पिता वज्रसेन तीर्थंकर के निकट तीर्थंकरत्व में कारण सोलह कारण भावनाओं का चितवन किया था। विशुद्धभावनः सम्यग् विशुध्यन् स्वविशुद्धिभिः। तदोपशमकश्रेणी-मारूरोह मुनीश्वरः ॥८६॥ विशुद्ध भावना वाले उन मुनीश्वर ने आत्म विशुद्धि को भली प्रकार बढ़ाते हुए उपशम श्रेणी पर प्रारोहण किया। अंतर्मुहूर्त पर्यन्त उन्होंने उपशाँत मोह अवस्था का अनुभव किया । पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वे स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान में आ गए। ग्यारहवें गुणस्थान में उन्होंने आरोहण किया था, क्योंकि उन्होंने मोहनीय कर्म का उपशमन किया था, क्षय नहीं किया था। इसके बाद दूसरी बार भी वे ग्यारहवें गुणस्थान को पहुंचे थे। वहाँ पहुँचने के पश्चात् उनकी मृत्यु हो गई थी। इससे उनका सर्वार्थसिद्धि में जन्म हुआ था। प्राचार्य जिनसेन का कथन है :-- द्वितीयवार मारुह्य श्रेणी-मुपशमादिकाम् । पृथक्त्वध्यानमापूर्ण-समाधि परमं श्रितः ॥११०॥ उपशान्तगुणस्थान कृतप्राणविसर्जनः। सर्वार्थसिद्धिमासाद्य संप्रापत् सोऽहमिन्द्रताम् ॥११-१११॥ वे पृथक्त्ववितर्क ध्यान को पूर्णकर द्वितीय बार उपशम श्रेणी पर आरोहण कर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त हुए। उपशांतकषाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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