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तीर्थकर तपश्चरण किया था। इसका कारण यह है :
निगृहीतशरीरेण निगृहीतान्यसंशयम् । चक्षुरादीनि रुद्वेषुतेषुरुद्धं मनो भवेत् ॥२०-१७६॥ मनोरोधः परं ध्यानं तत्कर्मक्षयसाधनम् । ततोऽनन्तसुखावाप्तिः ततः कायं प्रकर्शयेत् ॥२०-१८०॥
निश्चयसे शरीर का निग्रह होने से चक्षु आदि सभी इन्द्रियों का निग्रह हो जाता है और इन्द्रियों का निग्रह होने से मन का निरोध होता है। मन का निरोध होना ही उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है तथा यह ध्यान ही समस्त कर्मों के क्षय का साधन है। समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। इसलिए शरीर को कृश करना चाहिए।
शरीर को स्थूल बनाने योग्य सुमधुर सामग्री प्रदान करने से आत्मा की निधि को प्रमाद रूपी चोर लूटने लगते हैं। शरीर की रक्षा इसलिए आवश्यक है कि उसके द्वारा तप होता है । यथार्थ में साधु आत्मशक्ति की वृद्धि को मुख्य लक्ष्य बनाते हुए शरीर को योग्य सामग्री प्रदान करते हैं। पूज्यपाद स्वामी का यह कथन गम्भीर अनुभव पर प्रतिष्ठित है कि जीव का कल्याण तथा शरीर का हित इन दोनों में संघर्ष होता है, क्योंकि :
यज्जीवस्योपकाराय तदेहस्यापकारकम् ।
यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकम् ॥१६॥
जिस तपश्चर्या के द्वारा जीव का कल्याण होता है, उसके द्वारा शरीर की भलाई नहीं होती। जिसके द्वारा शरीर को लाभ पहुंचता है, उसके द्वारा आत्मा का हित नहीं होता ।
भगवान की वृत्ति
निर्ग्रन्थ भगवान वृषभदेव मुमुक्षु हैं । संसार के अनंत दुःखों से छूटकर अपने स्वरूप को प्राप्त करना चाहते हैं। इस कारण वे कर्मों को जलाने में तत्पर हैं ।
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