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तीर्थकर सका । वीतराग, शांत, निस्पृह, निर्ग्रन्थ साधुओं में विलक्षण शक्ति का सद्भाव पाया जाता है । इनकी भक्ति वाला जीव स्वयमेव उन्नति को प्राप्त करता है, तथा निंदक समृद्ध होते हुए भी शनैःशनैः पतन को प्राप्त करता है ।
मुनियों द्वारा अपार हित
उत्तरपुराण में बताया है कि महावीर तीर्थंकर का जीव बहुत भव पहले पुरुरवा भील था । वह सागरसेन मुनि को देखकर उनका वध करने को तत्पर था, कि उसकी स्त्री कालिका ने कहा 'वनदेवाश्चरंतीमे मावधी:' (७४ पर्व, १८)-ये वन देवता हैं। इनका वध नहीं करना चाहिए। इस प्रकार उस पाप कार्य को त्यागकर वह पुरुरवा उन मुनिराज के पास गया और उसने उनसे मद्य, माँस तथा मधु त्याग रूप व्रत लिए थे। इस प्रकार उस पतित आत्मा का उद्धार दिगम्बर जैन साधु के निमित्त से हुआ था। इस तरह इन मुनियों के द्वारा गणनातीत जीवों का कल्याण होता है । उन पावन-मूर्ति दया के देवताओं के प्रति वात्सल्य तथा भक्ति कल्याणदायी है।
स्वामी समन्तभद्र ने स्थितीकरण का लक्षण करते हुए लिखा है, कि यह कार्य धर्म-वत्सल प्राज्ञ पुरुष करते हैं । विकृत मनवाले मानव की अंतचिकित्सा बालबुद्धि व्यक्ति द्वारा सम्भव नहीं है । उस हृदय शुद्धि के कार्य को करने वाला धर्म प्रेमी तथा बुद्धिमान (धर्मवत्सले: प्राज्ञः) होना चाहिए । अयोग्य व्यक्ति यदि चिकित्सा कार्य में प्रवृत्त होता है, तो उससे अहित अधिक होता है । आज जो भी निन्दापूर्ण लेख लिखने में कुछ प्रवीणता धारण करता है, वह साधु की त्रुटि को देखकर घाव पर बैठने वाली मक्खी की तरह पीड़ा देने के साथ चाव को बढ़ाने का कार्य करता है।
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