SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ ] तीर्थकर है, इसे भूल जाते हैं। साधु का जीवन तो गाय के समान है । उस निरपराधी साधु की यदि कोई निन्दा करता है तो वह उसका प्रत्युत्तर न देकर उसको शांत भाव से सहन करता है । चेतावनी ___महापुराणकार की यह चेतावनी ध्यान देन योग्य है :-'ते नरा: पापभारेण प्रविशंति रसातलम्' --वे पुरुष कौन हैं जो पाप के भार से रसातल में (नरक में) पहुँचते हैं ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए प्राचार्य कहते हैं :-- ये च मिथ्यादृशः क्रूरा रौद्रध्यानपरायणाः । सत्वेषु निरनुक्रोशाः बह्वारम्भपरिग्रहाः ॥१०--२३॥ धर्मद्रुहश्च ये नित्यम् अधर्मपरिपोषकाः । दूषकाः साधुवर्गस्य मात्स्यों पहताश्च ये ॥२४॥ रुष्यन्त्यकारणं ये च निम्रन्थेभ्योऽतिपातकाः । मुनिभ्यो धर्मशीलेभ्यो मधुमासाशने रताः ॥२५॥ वधकान् पोषयित्वान्यजीवानां येऽतिनिघृणाः। खास्का मधुमासस्य तेषां ये चानुमोदकाः ॥२६॥ जो मिथ्यादृष्टि हैं, रौद्रध्यान में तत्पर हैं, प्राणियों में सदा निर्दय रहते हैं, बहुत प्रारम्भ और परिग्रह रखते हैं, सदा धर्म से द्रोह करते हैं, अधर्म में संतोष रखते हैं, साधनों की निन्दा करते हैं, मात्सर्य संयुक्त हैं, धर्म सेवन करने वाले परिग्रहरहित मुनियों से बिना कारण ही क्रोध करते हैं, अतिशय पापी हैं, मधु और माँस खाने में तत्पर हैं, अन्य जीवों की हिंसा करने वाले कुत्ता, बिल्ली आदि पशुओं को पालते हैं, अतिशय निर्दय हैं; स्वयं मधु, माँस खाते हैं और उनके खाने वालों की अनुमोदना करते हैं; वे जीव पाप के भार से नरक में प्रवेश करते हैं। निवनीय प्रवृत्ति कुछ लोग प्रसन्नतापूर्वक साधुओं का अवर्णवाद करते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy