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________________ १४० ] तीर्थकर अमंगल प्रवृत्ति ___ आज के युग में भोग-विलास की सामग्री प्रचुर रूप में मनुष्य का धन ले लेती है । परोपकार, दान, पुण्य के लिए उसके पास देने योग्य द्रव्य कठिनता से बच पाता है। ऐसी स्थिति में भी जो भक्तिपूर्वक पात्रदानादि कार्य करते हैं, वे यथार्थ में स्तुति के पात्र हैं। किन्तु ऐसे सात्विक दान देने वालों को देखकर कोई-कोई उनकी अनुमोदना के बदले मन में कुढ़ते हैं, दु:खी होते हैं और उस दान की निन्दा करते हैं । पाप कार्यों में पानी की तरह पैसे का बहाया जाना इन लोगों को कष्ट नहीं देता, क्योंकि ऐसा करना उनको अपनी प्रतिष्ठा के अनुरुप लगता है। असात्विक कार्यों में अपनी धनसम्पत्ति का व्यय करने वाला रत्नत्रयधारी मुनीन्द्रों की योग्य सेवा, परिचर्या में द्रव्य-व्यय का आनन्द नहीं जानता । कुगति में जाने वाले जीव के भाव तथा आचरण धर्म तथा धर्मात्माओं के प्रतिकूल हुआ करते हैं। नीचगति में जाने वाले प्राणी बहुत हैं, सुगति में जाने वालों की संख्या न्यून है, इसलिए हिसा, माया, लोभादि के पथ में प्रवृत्त होने वाले अधिक मिलते हैं और आज के कलिकाल में ऐसों की वृद्धि दुःख अवश्य पैदा करती है, किन्तु उसे देखकर आश्चर्य नहीं होता। यदि इस काल में लोग अधर्म की अोर प्रवृत्ति न करें, तो फिर यह दुषमा काल ही क्यों कहा जाता ? जीव की अधर्म की ओर प्रवृत्ति के लिये प्रेरणाप्रद प्रचुर सामग्री यत्र-तत्र मिलती है । पूर्व में कुदान, कुतप करने के फलसे आज पापमयी जीवन बिताते हुए भी धन वैभव सम्पन्न लोगों को देखकर भ्रमवश लोग यह मान बैठते हैं, कि सदाचार का कोई मूल्य नहीं है। बेचारी शीलवती सती कष्टपूर्वक जीवन निर्वाह कर पाती है और हीनाचरण वाली ललनाएँ विलासी पुरुषों के कारण वैभव के साथ सुखी और समृद्ध दिखाई पड़ती हैं। ऐसी ही अन्यत्र भी विचित्र दशा दिखाई पड़ती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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