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________________ १३२ ] तीर्थकर पुण्यकर्म तथा पाप कर्म के बन्ध में जीव के भाव कारण हैं । भगवान ने कहा है कि बाह्य कारण उस परिणाम अर्थात् भाव रूप कारण के कारण हैं। इससे भावों की पवित्रता के लिए योग्य बाह्य साधनों का भी आश्रय ग्रहण करने में सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। तीर्थंकरों की पारणा ऋषभनाथ भगवान ने इक्षुरस लिया था, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है। शेष तीर्थंकरों ने गोक्षीर से बनाए गए श्रेष्ठ अन्न का आहार किया था। हरिवंशपुराण में कहा है : प्रायेनेझुरसो दिव्यः पारणायां पषित्रितः । अन्योंक्षीरनिष्पन्न-परमानमलालसैः ॥६०-२३८॥ क्या दूध सदोष है ? आजकल कोई-कोई लोग नवयुग के वातावरण से प्रभावित हो दूध को मांस सदृश सोचते हैं । यह दृष्टि असम्यक् है । दूध यदि सदोष होता, तो परम दयालु, सर्व परिग्रह त्यागी तथा समस्त भोगों का भी परित्याग करने वाले तीर्थकर भगवान उसको आहार में क्यों ग्रहण करते ? मधुर होते हुए भी मधु को, जीवों का विघातक होने से जैसे जिनागम में त्याज्य कहा है, उसी प्रकार वे त्रिकालदर्शी जिनेन्द्र दूध को भी त्याज्य कह देते । दूध दुहने के बाद अन्तर्मुहूर्त अर्थात् ४८ मिनिट के भीतर उष्ण करने से निर्दोष है, ऐसा जैनाचार-ग्रन्थों में वर्णन है। दूध में सदोषता होती तो परमागम तीर्थंकर भगवान की मूर्ति के अभिषेक के लिए दूध का क्यों विधान करता ? पद्मपुराण में भगवान के जल, घृतादि के द्वारा अभिषेक का महत्व बताते हुए लिखा है : अभिषेक जिनेन्द्राणां विधाय क्षीरधारया। विमाने क्षीरधवले जायते परमद्युतिः ॥३२-१६६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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