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________________ तीर्थंकर [ ११९ आत्मा का ध्यान कर उसी निजतत्व को अनुभवगोचर बना । उस स्वरूप में नित्य विहार कर । अन्य द्रव्यों में विहार मत कर । अमृतचंद्रसूरि कहते हैं : एको मोक्षपयो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्तात्मकः । तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायच्च तं चेतिसि ।। तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यांत राण्यस्पृशन् । सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विदांत ।।२४० । दर्शन - ज्ञान - चारित्रात्मक ही मोक्ष का पथ है । जो पुरुष उसी में स्थित रहता है, उसी को निरन्तर ध्याता है, उसी का अनुभव करता है और अन्य द्रव्यों को स्पर्श न करता हुआ उस रत्नत्रय धर्म मं निरन्तर विहार करता है, वह पुरुष शीघ्र ही सदा उदयशील समय के सार अर्थात् परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त करता है । भगवान के मूलगुर भगवान पंचमहाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति, पंचेन्द्रिय रोध, केशलोच, दिगम्बरत्व, अस्नान व्रत, षंडावश्यक, स्थित भोजन, क्षिति शयन तथा प्रदंतधावन रूप अष्टाविंशति मूलगुणों में से २७ गुणों की पूर्ति कर रहे हैं । आहार का छह माह तक परित्याग कर देने से खड़े रहकर आहार लेना इस नियम की पूर्ति नहीं हुई है । ऐसी स्थिति में भी वे प्रभु अट्ठाईस मूल गुण वाले ही माने जाएंगे, कारण उन्होंने खड़े होकर ही आहार लेने की प्रतिज्ञा की है । दीर्घ तपस्या का हेतु कोई व्यक्ति यह सोचता है, भगवान ऋषभदेव ज्येष्ट जिनवर हैं। उनसे पश्चात्वर्ती किसी भी तीर्थंकर ने इतना लम्बा उपवास नहीं किया । स्वयं उन प्रभु के प्रात्मज भरत ने अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त किया था, ऐसी स्थिति में प्रादिजिनेन्द्र को भी सरल तप का अवलंबन अंगीकार करना चाहिए था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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