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तीर्थकर
[ १०३ यह कल्पना अत्यन्त असंगत, अमनोज्ञ तथा अनुचित है । उस प्रसंग की गंभीरता को ध्यान में रखने पर एक प्रकार से सारशन्य ही नहीं; अपवादपूर्ण भी प्रतीत हए बिना न रहेगी। जहाँ विवेकी सौधर्मेन्द्र के नेतृत्व में सर्व कार्य सम्यक् रीति से संचालित हो रहे हों, चक्रवर्ती भरत सदृश प्रतापी नरेन्द्र प्रजा के अनुशासन प्रदाता हों और जहाँ भगवान के वैराग्य के कारण प्रत्येक का ममता पूर्ण हृदय विशिष्ट विचारों में निमग्न हो, वहाँ झगड़ा उत्पन्न होने की कल्पना तक अमंगल रूप है। सभी लोग विवेकी थे, अतएव संपूर्ण कार्य व्यवस्थित पद्धति से चल रहा था । सौधर्मेन्द्र तो एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में एक सौ सत्तर तक तीर्थंकरों के कल्याणकों के कार्य संपादन करने में सिद्धहस्त तथा अनुभवप्राप्त है । अत: स्वप्न में भी क्षोभ की कल्पना नहीं की जा सकती ।
तपोवन में पहुँचना
भगवान् सिद्धार्थ वन में पहुँचकर पालकी से नीचे उतरे । हरिवंशपुराण में लिखा है :
अवतीर्णः स सिद्धार्थी शिविकायाः स्वयं यथा ।
देवलोकशिरस्थाया दिवः सर्वार्थसिद्धितः ॥६--९३॥
सिद्ध बनने की कामना वाले सिद्धार्थी भगवान ऋषभदेव देवलोक के शिर पर स्थित पालकी पर से स्वयं उतरे, जैसे वे सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग से अवतीर्ण हुए थे । अब मुमुक्षु भगवान मोहज्वर से मुक्त होकर आत्म स्वास्थ्य प्राप्ति के हेतु स्वस्थता संपादक तपोवन के ही वातावरण में रहकर क्रमश: रोगमुक्त हो अविनाशी स्वास्थ्य को शीघ्र प्राप्त करेंगे । उन्होने देख लिया कि सच्चा स्व तथा पर का कल्याण अपने जीवन को आदर्श (दर्पण) के समान आदर्श बनाना है । मलिन दर्पण जब तक मलरहित नहीं बनता है, तब तक वह पदार्थों का प्रतिबिम्ब ग्रहण करने में असमर्थ रहता है, इसी प्रकार मोहमलिन मानव का मन त्रिभुवन के पदार्थों को अपने में प्रतिबिंबित कराने में अक्षम रहता है।
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