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________________ गाथा १२८ ९३६ प्रकीर्णक-सूची आराधना से शुद्धि ४८-५२ शल्य रहित की शुद्धि ५३-५४ संवृत और असंतृत की निर्जरा शील और संयम से भाव शुद्धि विशुद्ध चारित्र से दुःख क्षय ५७-५८ निश्शल्य होने से विशुद्ध चारित्र ५६ पाँच संक्लिष्ट भावनाओं का त्याग ६० एक असंक्लिप भावना का समादर ६१ क- कन्दर्प भावना ६२ ख- किल्विषक भावना ६३ ग- अभियोगी भावना ६४ घ- आश्रवी भावना ६५ ङ. सांमोही भावना ६६ असंक्लिष्ट भावना से शुद्ध ६७-७७ बाल मरण वर्णन ७८ निश्शल्य आलोचक है वह आराधक है ७६-८५ आलोचना आदि चौदह प्रकार की विधि ८६-८७ क- आचार्य के गुण ख. अट्ठारह स्थान ग- आठ स्थान ८८-८९ उपस्थापना के दश स्थान ६०-६३ आचार्य के गुण १४-१२६ क- सशल्य है वह आराधक नहीं ख- निश्शल्य है वह आराधक है ग- आलोचना के दस दोष घ- ज्ञान प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करने का उपदेश १२७-१२८ बारह प्रकार के तप का आचरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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