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________________ भगवती-सूची ४१६ श०३३ उ०७ प्र०२५. ३ दो प्रकार के सूक्ष्म पृथ्वीकाय ४ क- दो प्रकार के बादर पृथ्वीकाय ___ ख- पृथ्वीकाय के समान अपकाय-यावत्-वनस्पतिकाय के भेद अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय की आठ कर्म प्रकृतियां पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काय की आठ कर्म प्रकृतियां ७-८ अपर्याप्त, पर्याप्त पृथ्वीकाय यावत्-वनस्पतिकाय के आठ कर्म प्रकृतियों का बंध ६-११ पृथ्वीकाय-यावत्-वनस्पतिकाय के कर्म प्रकृतियों का बंध १२-१३ पृथ्वीकाय-यावत्-वनस्पतिकाय के कर्म प्रकृतियों का वेदन द्वितीय उद्देशक १४-१५ अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रियों के भेद १६-१७ अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रियों की कर्म प्रकृतियां अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रियों के कर्म प्रकृतियों का बन्धन अनन्तरोपपन्न एकेन्द्रियों के कर्म प्रकृतियों का वेदन तृतीय उद्देशक परम्परोपपन्न एकेन्द्रियों के भेद परम्परोपपन्न एकेन्द्रियों के कर्म-प्रकृत्तियों का बन्धन तथा वेदन चतुर्थ उद्देशक अनन्तरावगाढ पृथ्वीकाय-यावत्-वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में पंचम उद्देशक परम्परावगाढ पृथ्वीकाय-यावत्-वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में षष्ठ उद्देशक अनन्तराहारक, पृथ्वीकाय-यावत्-वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में सप्तम उद्देशक परम्पराहारक पृथ्वीकाय-यावत्-वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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