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श्री कवि किशनसिंह विरचित
जिह वस्तु तणो परमाण, प्रथमहि कीयो थो जाण । तिहकौं वीसरि सो जाई, स्मृतिजु अतिचार कहाई॥३७२॥ देशव्रत नामक द्वितीय गुणव्रत कथन
चौपाई दिशि विदिशाके जे जे देश, जिह पुरलों जे करे प्रवेश । हरै नहीं मरयादा कोई, तिनको पलै देशव्रत सोई॥३७३॥
मन प्रसरण वारणके हेत, मन वच कर मरयादा लेत । २आप लंधि कर कबहुं न जाय, तहां थकी बढतो नहि जाय ॥३७४॥
दोहा सो लहिये बिन वरतको, नेम न मूल कहाय । यातें गहिये आखडी, ज्यों फल विस्तर थाय ॥३७५॥
देशव्रतके पाँच अतिचार
छन्द चाल ३कीयो जे देश प्रमाण, तिहि पार थकी सों सुजाण ।
कोई नहि वस्तु मंगावै, कबहूं नहि लोभ बढावै ॥३७६॥ जितना प्रमाण किया था उसे भूल जाना, यह स्मृत्यन्तराधान नामका पंचम अतिचार है ॥३७२॥
आगे देशव्रतका कथन करते हैंदिशाओं और विदिशाओं में जो देश हैं उनके अमुक नगर तक हम प्रवेश करेंगे ऐसी मर्यादा कर जो उसका भंग नहीं करते हैं उनके देशव्रत पलता है॥३७३॥ मनका प्रसार रोकनेके लिये मन और वचनसे जो मर्यादा ली जाती है उसका उल्लंघन कर कभी आगे नहीं जाना चाहिये। जहाँ तककी मर्यादा है वहीं तक जावे, आगे नहीं जावे। विशेष-अन्य ग्रंथोंमें देशव्रतका यह लक्षण बताया गया है कि दिग्व्रतमें जन्म पर्यन्तके लिये की हुई विस्तृत मर्यादामें घड़ी, घंटा, दिन, महीना आदिकी अवधि लेकर विस्तृत क्षेत्रको और भी संकुचित करना देशव्रत है ॥३७४॥ व्रतको लिये बिना नियमका मूल नहीं कहलाता है इसलिये व्रत अवश्य ही लेना चाहिये जिससे उसके फलमें विस्तार होता जाय । भावार्थ-कितने ही लोग अन्यत्र आते जाते नहीं हैं परन्तु आने जानेका नियम नहीं लेते, उनके लिये कहा गया है कि व्रत लिये बिना कोई नियम नहीं होता, अतः अपनी सामर्थ्यके अनुसार नियम अवश्य लेना चाहिये ॥३७५॥
आगे देशव्रतके पाँच अतिचार कहते हैं
जितने देशका प्रमाण किया है उसके बाहरसे कोई वस्तु नहीं मंगाना चाहिये और न ही लोभ बढ़ाना चाहिये ॥३७६॥ जहाँ तककी जो मर्यादा की है उसका उत्तम पुरुष कभी भंग नहीं
१ मन सैन्य ख० ग० २ आप जहाँ दिशि कबहुं न जाय, तहाँ तणो बडती नहीं खाय । ख० ग० ३ कीनो जिहि स०
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