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________________ क्रियाकोष जो मनमें खावेको चाव, खावे जीमत वार कराव । अथवा कीए पीछे ताम, लैनो जोग आठ ही जाम ॥ १९७॥ साठोंका रसको उबटाहि, राखे नरम चासनी ताहि । गागर मटकी भरके राख, ताको बहु दिन पीछे चाख ॥ १९८॥ ताहूंमें मदिराको दोष, महानन्त जीवनिको कोष । अधिको कहां करो आलाप, अहोरात्र पीछें बहु पाप ॥ १९९॥ याको षटरस नाम जु कहै, पुन्यवान कबहू नहि है । मन वच तन इनको जो तजै, मदिरा त्याग वरत सो भजै ॥ २००॥ द्रोहा जे विशुद्ध मदिरा त्यजन, पालैं वरत महन्त । मरजादा ऊपर गए, तुरत त्यागिए सन्त ॥ २०९ ॥ रसोई या भोजनकी क्रियाका वर्णन चौपाई होत रसोई थानक जहां, खिचडी रोटी व्यंजन तहां । चांवल और विविध परकार, निपजै श्रावककै घर सार ॥ २०२॥ कि इसके समान अन्य पाप नहीं हैं । इसमें मदिरापानका दोष लगता है । इसमें संदेह नहीं है । इसलिये हे भव्यजनों ! इसका परित्याग करो ।।१९१-१९६ ।। यदि मनमें खानेका उत्साह है तो भोजन करते समय ही बनवा कर खाना चाहिये अथवा बनवानेके बाद आठ प्रहर तक ही खानेके योग्य होता है ॥१९७॥ ३१ कोई लोग गन्नेके रसको ओंटा कर गर्म चासनीमें डालते हैं पश्चात् उसे गागर या मटके में रख कर बहुत दिन बाद खाते हैं उसमें भी मदिराका दोष लगता है क्योंकि वह अनन्त जीवोंका भण्डार हो जाता है। अधिक क्या कहें ? एक दिन-रातके बाद उसे खानेमें बहुत पाप होता है । इस पाकको लोग षट्स कहते हैं परन्तु पुण्यवान जीव इसे कभी नहीं खाते। जो मन वचन कायसे इसका त्याग करते हैं वे ही मदिरा त्याग व्रतके धारी हो सकते हैं ।।१८५-२००।। जो मनुष्य निर्दोष रूपसे मदिरा त्याग व्रतका पालन करना चाहते हैं उन्हें मर्यादा बीत जाने पर इन सबका त्याग कर देना चाहिये || २०१॥ Jain Education International आगे रसोई वा भोजनकी क्रियाका वर्णन करते हैं श्रावकके श्रेष्ठ घरमें रसोई बनानेका स्थान पृथक् होता है जिसमें खिचड़ी, रोटी, चाँवल और विविध प्रकारके भोजन बनाये जाते हैं । रसोई घर के पास जीमनेका जो निश्चित स्थान है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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