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क्रियाकोष नाज नजरतें सोध्यो परै, तातें करुणा अति विस्तरै । निसिको जो पीसै अरु दलै, तातें करुणा कबहुं न पलै ॥१८२॥ चाकी गालै चून रहाय, चींटी अधिक लगै तसु आय । निसिको पीस्यो नजर न परै, ताके दोष केम ऊचरै ॥१८३।। नाजमांहि ऊपरतें कोय, प्राणी आय रहे जो होय । सोई नजर न आवै जीव, यातें दूषण लगै अतीव ॥१८४॥ एते निसि पीसणके दोष, जान लेहु भवि अघके कोष । ताते निसि पीस्यौ नहि भलो, त्यागो ते किरियाजुत चलो ॥१८५॥ चून तणी मरयादा कहूं, जिनमारगमें जैसे लहं । सीतकाल दिन सात बखान, पांच दिवस ग्रीषम ऋतु जान ॥१८६॥ वरषा काल मांहि दिन तीन, ए मरयादा गहौ प्रवीन । इन उपरांत जानिये इसो, दोष चलितरस भाष्यो तिसो ॥१८७॥ निसिको नाज भिगौ जो खाय, अंकूरा तिनमें निकसाय । जीव निगोद तणो भंडार, कंदमूल सम दोष अपार ॥१८८॥ तातें जिते विवेकी जीव, दोष जाणकै तजहु सदीव । श्रावककी है घर जो त्रिया, किरिया मांहि निपुण तसु हिया ॥१८९॥
है इसलिये दयाका विस्तार होता है। जो रात्रिमें पीसते और दलते हैं उनसे दयाका पालन कभी नहीं होता ॥१८२॥ चक्की झाड़ लेने पर भी उसमें कुछ चून (आटा) रह जाता है। उस चूनके कारण चींटी आदि जीव अधिक लग जाते हैं। रात्रिको पीसने पर वे दिखाई नहीं देते-सब पिस जाते हैं अतः इसका दोष कैसे कहा जा सकता है ? ॥१८३॥ पीसे जाने वाले अनाज पर भी ऊपरसे कोई जीव चढ़ जाते हैं जो रात्रिमें दिखाई नहीं देते। इससे बहुत दोष लगता है। हे भव्यजीवों ! रात्रिमें पीसनेके ये दोष जानो, ये सभी दोष पापके भण्डार हैं इसलिये रात्रिमें पीसना अच्छा नहीं है। इसका त्याग कर क्रियापूर्वक चलना चाहिये ॥१८४-१८५॥
__ आगे आटा आदिकी मर्यादा जैसी जिनमार्गमें कही गई है वैसी कहता हूँ। शीतकालमें सात दिनकी, ग्रीष्म कालमें पाँच दिनकी और वर्षाकालमें तीन दिनकी मर्यादा कही गई है। मर्यादा बीत जाने पर इनमें चलित रस जैसा दोष जानना चाहिये ॥१८६-१८७। जो लोग रातमें भिगो कर रखे हुए अनाजको खाते हैं उसमें अंकुर निकल आनेसे अनन्त निगोदिया जीव उत्पन्न हो जाते हैं जिससे वह कन्दमूलके समान हो जाता है। उसे खानेसे अपार दोष लगता है इसलिये विवेकी जीव दोष जान कर रात्रिके भिगोये हुए अनाजका सदा त्याग करें। श्रावकके घर जो
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