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________________ ३१० श्री कवि किशनसिंह विरचित उर उपजावै बोध क्रोध माया मद त्याजै, दया धरम सत कहै चौर्य तजि सीलहि साजै । परिग्रह करै प्रमान तिको दुरगति दुख वारन, सुर नर हुइ सिव लहै भविकजन जे अघटारन ॥ १९१३॥ ग्रन्थकार प्रशस्ति छन्द त्रिभंगी खंडेल सुवालं वंसविसालं नागर वालं देस थियं; रामापुर वासं देव निवासं धर्म प्रकासं प्रगट कियं । सिंघही कल्याणं सब गुण जाणं गोत्र पाटणी सुजस लियं, पूजा जिनरायं श्रुत गुरु पायं नमै सकति जिनदान दियं ॥ १९१४॥ तसु सुत दोयं गुरु सुखदेवं लहुरो आणंदसिंघ सुणौ, सुखदेव सुनंदन जिनपद वंदन ज्ञानभान किसनेस मुणौ । किसनै इह कीनी कथा नवीनी निज हित चीनी सुरपदकी, सुखदाय क्रिया भनि इह मन वच तन शुद्ध पले दुरगति रदकी ॥१९१५॥ पालते हैं, और परिग्रहका परिमाण करते हैं वे दुर्गतिके दुःखका निवारण कर देव तथा मनुष्य होकर मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥१९१३॥ ग्रन्थकार प्रशस्ति नागरवाल देशके उस रामापुर नगरमें, जो देव निवासके समान था तथा जहाँ धर्मका प्रकाश प्रकट था, खंडेलवाल, विशाल परिवारसे युक्त सिंघही कल्याण रहते थे, जो सब गुणोंके जानकार, पाटनी गोत्री तथा सुयशसे सहित थे, जिनराजकी पूजा करते थे, श्रुतकी आराधना करते थे, गुरुचरणों में विनत थे तथा शक्तिके अनुसार दान करते थे। उनके दो पुत्र थे-बड़े का नाम सुखदेव और छोटेका नाम आनन्दसिंह था । सुखदेवके दो पुत्र थे- ज्ञानभान और किशनेश । ये दोनों पुत्र जिनेन्द्र भगवानके भक्त थे । उनमेंसे किशनेश ( किशनसिंह ) ने इस नवीन कथाकी रचना की है । यह कथा आत्महितकी पहिचान करानेवाली है, देवगतिके सुखको देनेवाली है । इस कथामें कही हुई क्रियाओंका जो मन वचन कायकी शुद्धतापूर्वक पालन करता है वह दुर्गतियोंसे दूर रहता है ।।१९१४-१९१५ ॥ * माथुर वसन्तरायको समस्त संसार जानता था । * किशनसिंहने रात्रिभोजन त्यागवत कथाके अंतमें अपना परिचय इस प्रकार दिया है माथुर वसंतराय, बोहराको परधान, संघही कल्याणदास पाटणी बखानिये । रामपुर वास जाको सुत सुखदेव सुधी, ताको सुत किशनेश कवि नाम जानिये || तिहि निशिभोजन त्यजन व्रत कथा सुनी, ताकी कीनी चौपाईसु आगम प्रमाणिये । भूलि चूकि अक्षर घट जा वाको बुध जन, सोधि पढि वीनती हमारी मनि आनिये ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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