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________________ २६५ क्रियाकोष .वीर्यकांति नृप प्रोषधकी विधि है तिसी, उद्यापनकी रीति करी आगम जिसी; दीक्षा धरि मुनि होय घोर तपको गह्यो, केवलज्ञान उपाय मोक्षपदवी लह्यो ॥१६७३॥ दुकावली व्रत दोहा विधि दुकावली वरतकी, श्री जिन भाषी ताम । बेला सात जु मासमें, करिये सुनि तिथि नाम ॥१६७४॥ ___चाल छन्द पखि श्वेत थकी व्रत लीजै, पडिवा दोयज लखि कीजै । पुनि पांचै षष्ठी जाणो, आठै नवमि छठि ठाणो ॥१६७५॥ चौदसि पूण्यौं गिन लेह, बेला चहुँ पखि सित एह । तिथि चौथी पांचमी कारी, आठै नौमी सुविचारी ॥१६७६॥ चौदसि मावस परवीन, पखि किसन करै छठि तीन । इम सात मास इक माहीं, बारा मासहि इक ठाहीं ॥१६७७।। चौरासी बेला कीजे, उद्यापन करि छांडीजे । इस व्रतते सुर शिव पावे, सुखको तहाँ ओर न आवे ॥१६७८॥ वीर्यकान्ति नामके राजाने विधिपूर्वक ये उपवास किये और आगममें कहे अनुसार उद्यापन किया। पश्चात् दिगम्बर दीक्षा लेकर घोर तप किया तथा केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष पदवी प्राप्त की ॥१६७३॥ दुकावली व्रत द्विकावली व्रतकी जैसी विधि जिनेन्द्र भगवानने कही है वैसी कहता हूँ। इस व्रतके लिये एक माहमें सात बेला करना चाहिये ।।१६७४॥ शुक्ल पक्षसे इस व्रतका प्रारंभ करना चाहिये। शुक्ल पक्षमें पडिवा-द्वितीया, पंचमी-षष्ठी, अष्टमी-नवमी, चतुर्दशी-पूर्णिमा ये चार बेला तथा कृष्ण पक्षमें चतुर्थी-पंचमी, अष्टमी-नवमी, चतुर्दशी-अमावस ये तीन बेला इस प्रकार एक माहके सात और बारह माहके चौरासी बेला करना चाहिये। व्रत पूर्ण होनेपर उद्यापन कर समापन करना चाहिये। इस व्रतसे देव और मोक्षका वह सुख प्राप्त होता है जिसका अन्त नहीं है ।।१६७५-१६७८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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