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________________ २४४ श्री कवि किशनसिंह विरचित सवैया इकतीसा त्रेपन क्रियाने आदि देके नाना भेद भांति, क्रियाको कथन साखि ग्रन्थनकी आनिकै, अवर मिथ्यात कलिकाल भई थापना जे, तिनको निषेध कीयो आगमतें जानिकै; व्रत मन उकति सुगम जानि चालि परै, कहै नहि जिन तेऊ दुखे वृथा मानिकै; अबै नर नारी मन लाय जो वरत धरै, याहि समै शील तप व्रत जीय सांनिये || १५४८ ॥ छप्पय बहु विधि क्रिया प्रसंग कही इह कथा मझारी, अब उछाह मनमांहि आनि इह बात विचारी; क्रिया सफल जब होई वरत विधि यामें आये, मंदिर शोभा जेम शिखर पर कलश चढाये; इह जान बात विधि व्रतनिकी, सुनी जेम आगम भनी । दरशन विशुद्ध जुत धरहु भवि इह विनती किसना तनी || १५४९॥ चाल छन्द समकित जुत व्रत सुखदाई, अनुक्रमते शिव पहुँचाई । कछु नाम वरतके कहिये, भवि जन जे जे व्रत गहिये || १५५० ॥ कविवर किशनसिंह कहते हैं कि हमने ग्रन्थोंकी साख देकर त्रेपन क्रियाओंको आदि लेकर क्रियाके नाना भेदोंका वर्णन किया है। इस समय कलिकालमें जिन मिथ्यामतोंकी स्थापना हुई है, उनका आगमानुसार निषेध किया है । सुगम जान कर जो अनेक मन उक्त—कल्पित व्रत चल पड़े हैं, उन्हें वृथा दुःखदायक जानकर उनका कथन नहीं किया है । अब भी जो नरनारी मनोयोगपूर्वक व्रत धारण करते हैं वे शील, तप तथा व्रतके फलको प्राप्त होते हैं || १५४८ ॥ 1 इस कथा बीचमें प्रसंगवशात् अनेक प्रकारकी क्रियाओंका वर्णन किया है । अब मनमें उत्साह लाकर इस बातका विचार करते हैं कि क्रियाओंका वर्णन सफल तब होगा जब इसमें व्रतोंकी विधि भी आ जाय। जिस प्रकार शिखर पर कलश चढ़ जानेसे मंदिरकी शोभा बढ़ जाती है उसी प्रकार व्रतोंकी विधि आ जानेसे इस कथाकी शोभा बढ़ जायेगी । यह जानकर व्रतोंकी जैसी आगमोक्त विधि मैंने सुनी है, वैसी कहता हूँ । हे भव्यजीवों ! सम्यग्दर्शनकी विशुद्धताके साथ उस विधिको धारण करो, यह किशनसिंहकी विनति है ॥१५४९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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