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________________ क्रियाकोष सब मुख वच एम कहावे, हमते तू बडो कहावे । ऐसी विधि शिवमत रीति, जैनी करिहै धरि प्रीति ॥ १३७५॥ धरम न अघ भेद लहाही, किम कहिये तिन शठ पाहीं । ते अघ उपजावें भारी, तिनके शुभ नहीं लगारी ॥ १३७६॥ गुरु देव शास्त्र परतीति, धरिहै जे मन धरि प्रीति । ते ऐसी क्रिया न मंडै, अघ-कर लखि तुरतहि छंडै ॥१३७७॥ २१७ सतबीस नक्षत्र जु सारे, बालक है सकल मझारे । जाके शुभ पूरव सार, सो भुगतै विभव अपार || १३७८|| जाके अघ है प्राचीन, सो होय दलिद्री हीन । ए दान महा दुखदाई, दुरगति केरे अधिकाई ॥ १३७९॥ मिथ्यात महा उपजावे, दर्शन शिव-मूल नसावे । निज हित वांछक जे प्रानी, ए खोटे दान वखानी ॥ १३८० ॥ जिनमारग भाष्यौ एह, विधि उदै आय फल देह | तैसो भुगते इह जीव, अधिको ओछो न गहीव ।। १३८१॥ जाके निश्चय मनमांहीं, विकलप कबहूं न कराही । मनमांहि विचारै एह, अपनो लहनो विधि लेह ॥ १३८२॥ अर्थात् हमसे अधिक आयु पावे । इस प्रकारकी विधि शिवमतकी रीति है, इसे जैनी भी प्रीतिपूर्वक करते हैं, यह उनका अज्ञान हैं। वे धर्म और अधर्मका कुछ भेद नहीं जानते, मात्र अज्ञानवश इसे करते हैं। ऐसे जीव बहुत ही पापका उपार्जन करते हैं उन्हें शुभ अर्थात् पुण्यका अंश भी प्राप्त नहीं होता ।। १३७३-१३७६॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि जो मनमें प्रीतिपूर्वक देव, शास्त्र और गुरुकी प्रतीति-श्रद्धा करते हैं वे ऐसी क्रिया कभी नहीं करते, प्रत्युत पापकारी समझकर शीघ्र ही छोड़ देते हैं। कुल नक्षत्र सत्ताईस हैं इन्हींमें सब बालक जन्म लेते हैं। जिनके पूर्व भवका पुण्य साथ रहता है वे अपार वैभवका उपभोग करते हैं और जिनके पूर्व भवका पाप साथमें हैं वे हीन दरिद्री होते हैं । ये उपर्युक्त दान दुर्गतिके अत्यधिक दुःख देनेवाले हैं, महान मिथ्यात्वको उत्पन्न करनेवाले हैं, मोक्षका मूल जो सम्यग्दर्शन है, उसे नष्ट करनेवाले हैं । जो प्राणी आत्महितके इच्छुक हैं वे इन दानोंको खोटा दान कहते हैं। जिनमार्गमें तो ऐसा कहा गया है कि कर्म उदय आने पर जैसा फल देता है वैसा फल यह जीव भोगता है, अधिक हो या अल्प ।।१३७७-१३८१।। ' जिनके मनमें यह निश्चय रहता है वे कभी विकल्प नहीं करते । वे मनमें यही विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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