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________________ १८२ श्री कवि किशनसिंह विरचित खेतपालकी थापना, एम बनावे कूर । जिसा तिसा पाषाण परि, डारे तेल सिंदूर ॥११५२॥ छन्द चाल वैशाखमें घरके बारे, पूजे दे जात विचारे । तिल वाटि अरु बाकला तेल, ऐसे पूजाविधि मेल ॥११५३॥ दस बीस त्रिया धरि प्रीति, गावें जु गीत विपरीति । सेवे तिह माने हेव, सो जान मिथ्यात्वी एव ॥११५४॥ बहुते खेडा पुर गाम, इकसे न कही तसु नाम । तातें सकलाई मानें, सुखदाता एम बखाने ॥११५५।। दीया सुत जो उपजांही, सुत बिन तिय कौन रहाही । इह झूठ थापणो जाणी, तजिये भवि उत्तम प्राणी ॥११५६।। पाहण लघु धरै इक ठाहीं, पथवारी नाम कहाहीं । तिनको पूजत धरि नेह, कबहुं न सुखदाता तेह ॥११५७॥ मिथ्याततणो अधिकार, नरकादिक दुख दातार । जिनभाषित पर चित्त दीजे, खोटी लखि तुरत तजीजै ॥११५८॥ मान्यता करते हैं और दुर्भिक्षके समय बेच कर खा जाते हैं ॥११५१॥ दुष्ट अज्ञानी जन बीजासनके समान क्षेत्रपालकी भी स्थापना करते हैं। जिस-किसी पाषाण पर तेल और सिंदूर चढ़ा कर उसे क्षेत्रपाल मानने लगते हैं ।।११५२॥ वैशाखके महीनेमें घरके बाहर वटरुआ देवकी स्थापना करते हैं तथा उसकी पूजाके लिये तिलकी पिट्ठी व बाकलाका तेल इकट्ठा करते हैं और इस विधिसे उसकी पूजा करते हैं। दस बीस स्त्रियाँ इकट्ठी होकर प्रीतिपूर्वक विपरीत गाने गाती हैं। जो ऐसे वटरुआ देवको मानते हैं वे नियमसे मिथ्यादृष्टि हैं ॥११५३-११५४॥ कोई उसे खेडा देव, कोई पुर देव और कोई ग्राम देव कहते हैं। उसे एक नामसे न पुकार कर अनेक नामोंसे पुकारते हैं। ऐसी मान्यता रखते हैं कि इस देवकी कृपासे ही सुखशान्ति रहती है, यही सुखका देने वाला है ।।११५५॥ “ये ही पुत्र पुत्रियाँ देते हैं । पुत्रके बिना कौन स्त्री रह सकती है ?" ऐसा विश्वास कर उसकी मिथ्या स्थापना करते हैं। ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि हे भव्यजनों ! इस विपरीत मान्यताको छोड़ो ॥११५६॥ कितने ही लोग छोटे छोटे पत्थरोंको एक स्थान पर एकत्रित कर ‘पथवारी' नाम रख लेते हैं तथा स्नेहपूर्वक उसकी पूजा करते हैं परंतु यह निश्चित है कि वह पथवारी सुखको देनेवाली नहीं है ॥११५७।। यह सब मिथ्यात्वका प्रभाव है तथा नरकादिकको देनेवाला है। इसलिये जिन वचनों पर चित्त लगा कर इन खोटी क्रियाओंको तत्काल छोड़ देना चाहिये ।।११५८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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