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________________ १८० श्री कवि किशनसिंह विरचित छन्द चाल पित मात तृपतिके हेत, भोजन बहु जनको देत । कैसें तृपति है तेह, जिन आगम भाष्यो एह ॥११३९॥ मूए हुए वरष घनेरे, सुख दुख भुगतै भव केरे । तहां तै बहु किम वह आवै, जिनमतमें इह न समावै ॥११४०॥ सुत असन करै पितु देखै, तृपति न है परतख पेखै । तौ आन जनम कहा बात, जानो ए भाव मिथ्यात ॥११४१॥ दुय कोस थकी निज बाग, सींचै चित धरि अनुराग । रूख न बढवारी पावै, परभव किम तृपति लहावै ॥११४२॥ तातें जिनमतमें सार, ऐसो कह्यो न आचार । इह घोर मिथ्यात सुजाणी, तजिये भवि उत्तम प्राणी ॥११४३॥ आठै आसौज उजारी, अरु पूजै चेत दिहारी । करिकै चूंघरी कसार, बांटै तसु घर घर वार ॥११४४॥ गुड घिरत सुपारी रोक, नालेर धरै दे ढोक । निज बहन भुवाकौ देहै, धरि लोभ हिये वे लेहै ॥११४५॥ करा कर हर्षित होते हैं वे जिनमार्गसे विमुख हैं ॥११३८॥ मातापिताकी तृप्तिके लिये बहुत जनोंको भोजन देते हैं इससे मातापिताको तृप्ति कैसे हो सकती है ऐसा जिनागममें कहा गया है ॥११३९॥ जिन्हें मरे हुए बहुत वर्ष हो चुके हैं और जो अन्यत्र संसार संबंधी सुख दुःख भोग रहे हैं वे वहाँसे चल कर वापिस कैसे आ सकते हैं ? जिनमतमें उनका आना समाहित नहीं है ॥११४०॥ इस जन्ममें भी पुत्र भोजन कर रहा हो और पिता देख रहा हो तो देखने मात्रसे पिताको तृप्ति नहीं होती-उसकी भूख नहीं मिटती, तो अन्य जन्मकी क्या बात है? इसे मिथ्यात्वका भाव ही जानना चाहिये ॥११४१॥ दो कोशकी दूरी पर अपना बाग है उसको प्रेमसे कोई अपने घर बैठकर ही पानी सींचता है तो उसके सींचनेसे बागके वृक्ष वृद्धिको प्राप्त नहीं होते, फिर परभवमें तृप्ति कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? ॥११४२॥ इसीलिये जिनमतमें इसे सारभूत आचार नहीं कहा है । यह घोर मिथ्यात्व है ऐसा जान कर उत्तम भव्य प्राणियोंको इसका त्याग करना चाहिये ।।११४३॥ आसोज शुक्ल अष्टमीके दिन चैत दिहारी (?) की पूजा करते हैं। उस दिन घुघरी तथा कसार बना कर घर घर बाँटते हैं ॥११४४॥ गुड़, घी, सुपारी, नकद रुपये तथा नारियल चढ़ा कर धोक देते हैं पश्चात् वह चढ़ी हुई सामग्री बहिन और बुआ आदिको दे देते हैं। वे भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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