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________________ १४४ श्री कवि किशनसिंह विरचित भवि उपदेशे बहुविधि जहाँ, आयु करम पूरण भयो तहाँ । शेष अघातियको करि नास, पायो मोक्षपुरी सुखवास ॥८९९॥ सवैया एकतीसा मोहकर्म नास भये प्रसमत्त गुण थये, ज्ञानावर्ण नास भये ज्ञान गुण लयो है; दरसन आवरण नास भयो दंसण सु, अंतराय नासतें अनन्तवीर्य थयो है; नामकर्म नासतें प्रगट्यो सुहुमत्त गुण, आयु नास भये अवगाहण जु पायो है; गोत्रकर्म नास किये भयो है अगुरुलघु, वेदनीके नासे अव्याबाध परिणयो है॥९००। दोहा . विवहारे वसु गुण कहे, निश्चै सुगुण अनन्त । काल अनन्तानन्त बिते, निवसै सिद्ध महन्त ॥९०१॥ चौपाई इह विधि भवि दर्शन जुत सार, पालै श्रावक व्रत आचार । अर मुनिवरके व्रत जो धरै, सुर नर सुख लहि शिव-तिय वरै ॥९०२॥ निशि भोजनतें जे दुख लहे, अरु त्यागे सुख ते अनुभये । तिनके फलको वरनन भरी, कथा अणथमी पूरण करी ॥९०३॥ किया, भव्यजीवोंको बहुत प्रकारका उपदेश दिया। जब आयुकर्म पूर्ण होनेका अवसर आया तब शेष अघातिया कर्मोंका क्षय कर सुखके निवासभूत मोक्षपदको प्राप्त किया ॥८९५-८९९।। मोहनीय कर्मका नाश होनेसे उन्हें सम्यक्त्व गुण प्रकट हुआ, ज्ञानावरणीयके नाशसे अनन्तज्ञान गुण, दर्शनावरणीयके नाशसे अनन्तदर्शन गुण, अन्तरायके नाशसे अनन्तवीर्य गुण, नाम कर्मके नाशसे सूक्ष्मत्वगुण, आयुकर्मके नाशसे अवगाहना, गोत्रकर्मके क्षयसे अगुरुलघुगुण और वेदनीयके अभावसे अव्याबाध सुख प्राप्त हुआ ॥९००॥ व्यवहारनयकी अपेक्षा सिद्ध भगवानके ये आठ गुण कहे गये हैं परन्तु निश्चयनयसे तो अनन्त गुण होते हैं। वे सिद्ध महात्मा अनन्तानन्त काल तक वहीं निवास करते हैं ॥९०१॥ कविवर किशनसिंह कहते हैं कि इस प्रकार जो भव्यजीव सम्यक्दर्शनके साथ श्रावकके व्रत पालकर मुनिव्रत धारण करते हैं वे मनुष्य और देवगतिके सुख भोग कर मुक्तिरमाको प्राप्त होते हैं ॥९०२॥ रात्रिभोजनसे जो दुःख प्राप्त हुए और उसके त्यागसे जो सुख उपलब्ध हुए उनका यहाँ वर्णन किया, इस तरह अणथमी व्रतकी कथा पूर्ण हुई ॥९०३।।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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