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________________ (१४) १ (गुजराती) सं० १९५२ को २९ वर्षकी उम्र में की थी। इसमें सम्यग्दर्शनके कारणभूत छः पदोंका बहुत ही सुन्दर पक्षपातरहित वर्णन किया है। यह कृति नित्य स्वाध्यायकी वस्तु है । इसके अंग्रेजीमें भी गद्य-पद्यात्मक अनुवाद प्रगट हो चुके हैं । गद्य लेखनमें श्रीमद्जीने 'पुष्पमाला', 'भावनाबोध' और 'मोक्षमाला' की रचना की । इसमें 'मोक्षमाला' तो उनकी अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है जिसे उन्होंने १६ वर्ष ५ मासकी आयुमें मात्र तीन दिनमें लिखी थी। इसमें १०८ शिक्षापाठ हैं। आज तो इतनी आयुमें शुद्ध लिखना भी नहीं आता जब कि श्रीमद्जीने एक अपूर्व पुस्तक लिख डाली । पूर्वभवका अभ्यास ही इसमें कारण था । 'मोक्षमाला' के संबंध में श्रीमद्जी लिखते हैं- “जैनधर्मको यथार्थ समझानेका उसमें प्रयास किया है । जिनोक्त मार्ग से कुछ भी न्यूनाधिक उसमें नहीं कहा है। वीतराग मार्गमें आबालवृद्धकी रुचि हो, उसके स्वरूपको समझे तथा उसके बीजका हृदयमें रोपण हो, इस हेतुसे इसकी बालावबोधरूप योजना की है ।" 1 श्री कुन्दकुन्दाचार्यके 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थकी मूल गाथाओंका श्रीमद्जीने अविकल ( अक्षरशः ) गुजराती अनुवाद भी किया है । इसके अतिरिक्त उन्होंने श्री आनन्दघनजीकृत चौबीसीका अर्थ लिखना भी प्रारम्भ किया था, और उसमें प्रथम दो स्तवनोंका अर्थ भी किया था; पर वह अपूर्ण रह गया है । फिर भी इतनेसे, श्रीमद्जीकी विवेचन शैली कितनी मनोहर और तलस्पर्शी है उसका ख्याल आ जाता है। सूत्रोंका यथार्थ अर्थ समझने- समझाने में श्रीमद्जीकी निपुणता अजोड़ थी । मतमतान्तरके आग्रहसे दूर श्रीमद्जीकी दृष्टि बड़ी विशाल थी । वे रूढ़ि या अन्धश्रद्धाके कट्टर विरोधी थे । वे मतमतान्तर और कदाग्रहादिसे दूर रहते थे, वीतरागताकी ओर ही उनका लक्ष्य था । उन्होंने आत्मधर्मका ही उपदेश दिया । इसी कारण आज भी भिन्न-भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनोंका रुचिपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं । I श्रीमद्जी लिखते हैं " मूलतत्त्वमें कहीं भी भेद नहीं है, मात्र दृष्टिका भेद है ऐसा मानकर आशय समझकर पवित्र धर्म प्रवृत्ति करना ।” (पुष्पमाला - १४ ) " तू चाहे जिस धर्मको मानता हो इसका मुझे पक्षपात नहीं, मात्र कहनेका तात्पर्य यही कि जिस मार्गसे संसारमलका नाश हो उस भक्ति, उस धर्म और उस सदाचारका तू सेवन करना ।” (पुष्पमाला१५) “दुनिया मतभेदके बन्धनसे तत्त्व नहीं पा सकी । " ( पत्रांक २७) “जहाँ तहाँसे रागद्वेषरहित होना ही मेरा धर्म है। मैं किसी गच्छमें नहीं हूँ, परन्तु आत्मामें हूँ यह मत भूलियेगा । " ( पत्रांक ३७ ) श्रीमद्जीने प्रीतम, अखा, छोटम, कबीर, सुन्दरदास, सहजानन्द, मुक्तानन्द, नरसिंह मेहता आदि सन्तोंकी वाणीको जहाँतहाँ आदर दिया है और उन्हें मार्गानुसारी जीव (तत्त्वप्राप्तिके योग्य आत्मा ) कहा है। फिर भी अनुभवपूर्वक उन्होंने जैनशासनकी उत्कृष्टताको स्वीकार किया है “श्रीमत् वीतराग भगवन्तोंका निश्चितार्थ किया हुआ ऐसा अचिन्त्य चिन्तामणिस्वरूप, परमहितकारी, परम अद्भुत, सर्व दुःखका निःसंशय आत्यन्तिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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