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________________ क्रियाकोष * बैंगणको लखि मींढको, विस्मय आण्यो जोर । तातें अघ उपज्यो अधिक, महा मिथ्यात अघोर || ८४७ || अल्लि छंद कालान्तर तजि प्राण भयो घूघू जबै, तहां मरण लहि सोई नरक गयो तबै; पंच प्रकार अपार लहै दुख ते सही, निकलि काक परजाय ठई दुखकी मही ॥ ८४८ ॥ तिह वायस चउपद अनेक संताइया, विष्टादिक जीव चोंचतें खाइया, प्रचुर आपाप उपाय मुवो जदा, नरकि जाय बहु आयु समुद भुगतै तदा ||८४९|| तिहतै निकसि बिलाव भयौ पापी घनौ, मूसा मींढक आदि भखै कहलों गनौ; नरक जाय दुख भुंजि गृध्र पक्षी भयो, प्राणी भखे अनेक नरक फिर सो गयो || ८५०॥ बैंगनोंमें जो मेण्डक था वह दांतोंसे चबा नहीं, इसलिये उसे अलग रख दिया । प्रातः काल जब उसने देखा तो अत्यन्त आश्चर्यमें पड़ गया। इस रात्रिभोजनसे उसे घोर पापका बंध हुआ । सो ठीक ही है, क्योंकि मिथ्यात्व महा भयंकर होता ही है || ८४७॥ Jain Education International समय बीतने पर वह ब्राह्मण मर कर उलूक हुआ । वहाँसे मर कर नरक गया । नरकमें क्षेत्रादिजन्य पाँच प्रकारके दुःख भोगता रहा । वहाँसे निकल कर कौएकी दुःखदायक पर्यायको प्राप्त हुआ। कौकी पर्यायमें चोंचसे चींथ चींथ कर उसने अनेक चौपाये पशुओंको दुःख दिया और विष्टादिकमें रहने वाले जीवोंको हर्षित होकर खाया। कौएकी लम्बी आयु थी इसलिये वह बहुत पापोंका उपार्जन कर मरा और मर कर फिर नरक गया । वहाँ सागरों पर्यन्त दुःख भोगता रहा । वहाँसे निकल कर तीव्र पापी बिलाव हुआ । बिलावकी पर्यायमें वह चूहे तथा मेण्डक आदिको खाता रहा। बिलावके बाद फिर नरक गया । वहाँके दुःख भोग कर गीध पक्षी हुआ । इस पर्यायमें भी अनेक जीवोंको खा कर नरक गया ॥ ८४८-८५०॥ * अन्य प्रतियोंमें ऐसा पाठ हैं १३५ बैंगन में जो मेडको, मुखमें दीनो तेहि । दंत लगे चबयो नही, जुदो राखि धर जेहि ।। प्रात समय लखि चित्तमें विस्मय आनो जोर । यही अघ उपज्यो अधिक, महा मिथ्यात अघोर ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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