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क्रियाकोष
१३३
सोरठा निसि भोजनतै जीव, अति विरूप मूरति सही। है तन विकल अतीव, अलप आयु अर रोगयुत ।।८३३॥
दोहा भाग्यहीण आदर रहित, नीच कुलहि उपजांहि । दुख अनेक लहिहै सही, जो निसिभोजन खांहि ।।८३४॥
छंद चाल एक हस्तनागपुर ठाम, तस जसोभद्र नृप नाम । राणी जसभद्रा जाणो, श्रेष्ठी श्रीचंद वखाणो ॥८३५।। तिय लखमीमति तसु एह, नृप प्रोहित नाम सुनेह । द्विज रुद्रदत्त तसु तीया, रुद्रदत्ता नाम जु दीया ॥८३६॥ हरदत्त पुत्र द्विज नाम, तिन चरित सुणो दुखधाम । बीतो भादवको मास, आसोज प्रथम तिथि जास ॥८३७॥ निज पितृ श्राद्ध दिन पाय, द्विज पुरका सकल बुलाय । ब्राह्मण जीमणकौं आए, बहु असन थकी जु अघाए॥८३८॥ द्विज पिता नृपतिकै तांई, पोषै बहु बिनो धराई । पीछे नृप मंदिर आयो, राजा बहु काम करायो ॥८३९॥
रात्रिभोजन करनेसे मनुष्य अत्यन्त विरूप शरीरवाला, विकलांग, अल्पायु और रोगी होते हैं ॥८३३॥ जो मनुष्य रात्रिमें भोजन करते हैं वे भाग्यहीन तथा आदर रहित होते हुए नीच कुलमें उत्पन्न होकर अनेक दुःखोंको प्राप्त होते हैं ॥८३४॥
रात्रिभोजनकी कथा इस प्रकार है-एक हस्तिनागपुर नामका नगर था। उसके राजाका नाम यशोभद्र और रानीका नाम यशोभद्रा था। शेठका नाम श्रीचंद्र और सेठानीका नाम लक्ष्मीमती था। राजपुरोहितका नाम रुद्रदत्त और पुरोहितानीका नाम रुद्रदत्ता था । पुरोहितके पुत्रका नाम हरदत्त ब्राह्मण था। दुःखोंसे भरा हुआ इनका चरित्र सुनो। भाद्रपदका महीना व्यतीत होकर जब आसोजकी प्रथम तिथि-प्रतिपदा आयी तब अपने प्रपिताका श्राद्धदिवस जान कर हरदत्तने नगरके सब ब्राह्मणोंको बुलाया। ब्राह्मण जीमनेके लिये आये और बहुत प्रकारके भोजन कर संतुष्ट हुए ॥८३५-८३८॥ हरदत्त ब्राह्मणका पिता रुद्रदत्त पुरोहित राजाको बुलानेके लिये विनयपूर्वक उनके घर गया। पुरोहित जब राजभवन गया तो राजाने उससे बहुत काम कराया ॥८३९॥
१ गामा स० २ पितर न.
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