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________________ श्री कवि किशनसिंह विरचित अथवा ग्यानी मुनि पास, सुनिहै तिनिको परकास । श्रावक श्रावक निजमांही, लखि पात्र कुपात्र बतांही ॥५६१॥ छप्पय अणगार उतकृष्ट पात्रकी जो विधि सारी, 'कही यथारथ ताहि धारि चितमें अति प्यारी; सुणी भवि अवधारी करहु अनुमोदन जाकौ, निश्चय तसु सरधान किये, सुरपद है ताकौ; अब मध्यम जघन्य दुहु पात्रको, कहो दान अर फल यथा । जिन आगम मध्य कह्यौ जिसो तिसो सुणो भवि इह कथा॥५६२॥ चौपाई मध्यम पात्र सरावग जाणि, ब्योरा पूरव कह्यो वखाणि । इनमें भेद कहे हैं तीन, उत्तम मध्य जघन परवीन ॥५६३।। श्रावक मध्यम पात्र मझारि, भेद एकादश सुणहु विचार । जाहि यथाविधि जोग अहार, त्यौं श्रावक देहै सुखकार ॥५६४॥ इनकौ दान तणो फल जाणि, मध्यम भोगभूमि सु वखाणि । जन्मत मात पिता मरि जाय, जुगल्या छींक जंभाही पाय ॥५६५॥ अथवा स्वयं निर्णय न कर सके तो दूसरे ज्ञानी मुनियोंके पास उन मुनिके विषयमें सुनकर निर्णय कर ले अथवा श्रावक श्रावक, अपने बीच चर्चा कर पात्र-अपात्रका भेद बता देते हैं ॥५५९५६१॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि उत्कृष्ट पात्र-मुनियोंके आहारदानकी जो यथार्थ विधि कही गई है उस अतिशय प्रिय विधिको सुन कर हे भव्यजीवों ! हृदयमें धारण करो, उसकी अनुमोदना करो, क्योंकि निश्चयपूर्वक उसका श्रद्धान करनेसे देव पद प्राप्त होता है। अब आगे मध्यम और जघन्य पात्रके दानका फल जैसा जिनागममें कहा गया है वैसा हे भव्यजनों ! सुनो ॥५६२॥ __ मध्यम पात्र श्रावकको जानना चाहिये। इसका वर्णन पहले किया जा चुका है। मध्यम पात्रके तीन भेद हैं-१ मध्यमोत्तम, २ मध्यम मध्यम और ३ मध्यम जघन्य । सामान्य रूपसे मध्यम पात्र श्रावकके प्रतिमाओंकी अपेक्षा ग्यारह भेद हैं। जिस प्रतिमामें जो आहार जिस विधिसे देने योग्य होता है, उसी विधिसे श्रावक उसे आहार देते हैं ॥५६३-५६४॥ मध्यम पात्रको दान देनेका फल मध्यम भोगभूमिकी प्राप्ति है। मध्यम भोगभूमिमें युगलिया संतान जन्म लेती है और उसके जन्म लेते ही माता पिता मर जाते हैं। मरते समय माताको छींक और पिताको जम्हाई आती है। युगलिये अपने शरीर संबंधी अंगूठेमें निहित अमृतको चूसते हुए १ दान अहार विशेष अवर फल कहो विचारी स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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