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'धुन्धक्कनगर' या 'धुन्धकपुर' भी कहा गया है। आचार्य हेमचन्द्र जन्मना वैश्य थे। मोढ़वंश से सम्बन्ध रखने वाले एक वैश्य परिवार में उनका जन्म हुआ था । वस्तुतः उनके वंशजों का निकास मोढेरा गाँव से हुआ था, इसीलिए वे मोढवंशी कहलाने लगे थे। इस वंश सम्बन्ध रखने वाले वैश्य जन आज भी मोढ बनिये कहे जाते हैं । हेमचन्द्र के जन्म का नाम 'चाङ्गदेव' था। वस्तुतः हेमचन्द्र के परिवार की कुलदेवी का नाम 'चामुण्डा' तथा कुलपक्ष का नाम 'गोनस' था। उनके माता-पिता ने इन दोनों ही नामों के आद्यक्षरों को लेकर अपने इस पुत्र का नाम चांगदेव रखा था। कहा जाता है कि बालक चानदेव के जन्म से पूर्व ही उसकी माता को उसकी विलक्षणता के सम्बन्ध में अद्भुत स्वप्न आया करते थे। हेमचन्द्र के पिता का नाम 'चाचिग' और माता का नाम 'पाहिणी' था । युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार हेमचन्द्र के पिता वैदिक मत के अनुयायी थे, जबकि उनकी माता का झुकाव जैन धर्म की ओर था ।
हेमचन्द्र श्वेताम्बर गुरुओं की सूरि उपाधि वाली एक प्रतिष्ठित आचार्य - परम्परा के महानतम सदस्य माने जाते हैं। इस परम्परा के आचार्यों को उनके गुरुओं से 'सूरि' की उपाधि प्राप्त होती थी । हेमचन्द्र के गुरु श्वेताम्बर - सम्प्रदाय की ‘वज्र' नामक शाखा के आचार्य थे। उनका नाम चन्द्रदेवसूरि था । उन्हें देवचन्द्रसूरि के नाम से भी जाना जाता है।
कहा जाता है कि बालक चाङ्गदेव, जब वह अभी आठ वर्ष का मात्र था, एक दिन अपनी माता के साथ मन्दिर की ओर जा रहा था। मार्ग के बीच में ही आचार्य चन्द्रदेवसूरि से उसका साक्षात्कार गया। चन्द्रदेवसूरि ने चाङ्गदेव को तीव्र मेधा व विलक्षण सम्भावनाओं से युक्त बालक पाया । उन्हें इस बालक में भवितव्यता के शुभलक्षण स्पष्टरूप से दिखाई पड़े। इन अलौकिक शुभलक्षणों को देखकर देवचन्द्र ने घोषणा की कि यह बालक यदि क्षत्रियकुलोत्पन्न है, तो अवश्यमेव चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा, यदि यह ब्राह्मण कुलोत्पन्न है तो महात्मा बनेगा; और यदि इसने दीक्षा ग्रहण कर ली तो अवश्यमेव इस युग में कृतयुग की स्थापना करेगा। स्वाभाविक था कि हेमचन्द्र उस बालक से बहुत प्रभावित हुए। चाङ्गदेव के पिता उस समय परदेश की यात्रा पर थे। आचार्य ने उसकी माता से आग्रह किया कि वे उस बालक को अपने साथ ले जाने की अनुमति प्रदान करें । आचार्य के इस आग्रह पर माता ने अपने उस होनहार पुत्र को सह उन्हें समर्पित कर दिया। गुरु चन्द्रदेवसूरि का शिष्यत्व ग्रहण करने के पश्चात् उस बालक ने उनके सान्निध्य में रहकर अनेक वर्षों तक विविध शास्त्रों का अध्ययन और मनन किया। अपनी विलक्षण प्रतिभा और कठिन परिश्रम के बल पर उस बालक ने बारह वर्ष के अन्तर्गत ही अनेक विद्याओं में अपार वैदुष्य अर्जित कर लिया। उसने शीघ्र ही एक प्रमुख जैन आचार्य के रूप में विशेष ख्याति अर्जित कर ली; और दुनिया उसे आचार्य हेमचन्द्र व हेमचन्द्रसूरि के नाम से जानने, पहचानने व आदर देने लगी।
हेमचन्द्र को बाल्यावस्था में ही संन्यास की दीक्षा प्रदान कर दी गई थी। आचार्य देवचन्द्र ने चतुर्विध संघ के समक्ष स्तम्भतीर्थ के चैत्यालय में उन्हें संन्यास की दीक्षा दी थी। संन्यासदीक्षा के उपरान्त उनका नाम चाङ्गदेव से बदल कर सोमचन्द्र रख दिया गया । मेरुतुङ्गाचार्य के अनुसार संवत् १९५४ माघशुक्ल १४ शनिवार के दिन संन्यासग्रहण के समय उनकी आयु मात्र नौ वर्ष की थी। सत्रह वर्ष की आयु में उन्हें 'सूरि' की उपाधि प्रदान की गई थी। इस उपाधि से अलंकृत किये जाने के साथ ही उनका नाम भी परिवर्तित कर दिया गया। अब उनका नाम हेमचन्द्र रखा गया। एक किंवदन्ती के अनुसार एक बार सोमचन्द्र ने शक्तिप्रदर्शन हेतु अपने हाथ को आग में रख दिया था। आग में जलता
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