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मामा-भानेज कारागृह में
मामा-भानेज कारागृह में
पाँचवें दिन एक सार्थ के साथ धनदत्त वहाँ आ पहुँचा । दुर्दशा से पलटी हुई आकृति के कारण पहले तो कोई किसी को पहिचान नहीं सका, परन्तु पूछताछ एवं परिचय जानने पर बन्धुदत्त ने मामा को पहिचान लिया। उसने स्वयं का परिचय नहीं दे कर अपने को बन्धुदत्त का मित्र बताया। दूसरे दिन बन्धुदत्त एक नदी के किनारे शौच करने गया। वहाँ कदंब वृक्ष के नीचे एक गहर में उसे कुछ ज्योति दिखाई दी। उसने वहां भूमि खोदी, तो उसे रत्नजड़ित आभूषणों से भरपूर एक ताम्रपात्र मिला । बन्धुदत्त वह धन ले कर मामा के पास आया और बोला;-" यह धन मुझे मिला है । आप इससे अपने कुटुम्ब को राजा के बन्धन से मुक्त कराइये । इसके बाद अपन नागपुरी चलेंगे।' धनदत्त धन देख कर प्रसन्न हुआ। किंतु उसने इससे कुटुम्ब को तत्काल मुक्त कराना स्वीकार नहीं किया और कहा-" मेरे परिवार को अभी मुक्त कराना उतना आवश्यक नहीं, जितना तुम्हारे मित्र और मेरे भानेज बन्धुदत्त से मिलना है । उससे मिलने पर फिर विचार कर के योग्य करेंगे।" ... मामा की आत्मीयता पूर्ण भावमा जान कर बन्धुदत्त ने अपना परिचय दिया और अपनी दुर्दशा का वर्णन सुमाया । धनदत्त ने कहा-"अब सर्वप्रथम वह धन डाकू सपदार को दे कर प्रियदर्शना छुड़ानी चाहिये । बाद में दूसरा विचार करेंगे।"
वे चलने की तैयारी कर ही रहे थे कि अकस्मात् राज्य का सैनिक-दल आ धमका और सभी यात्रियों को बन्दी बना लिया। बन्धुदत्त से वह धन छिन लिया। सैनिक-दल चोरों को पकड़ने लिये ही आया था, सो इन्हीं को चोर समझ बन्दी बना लिया। बंधुदत्त ने कहा-“ यह धन हमारा है, हम चोर नहीं हैं।" किन्तु वे बच नहीं सके । न्यायाधिकारी ने धनदत्त और बन्धुदत्त के सिवाय सभी बन्दियों को निर्दोष जान कर छोड़ दिया। फिर मामा-भानेज से उनका परिचय और धन-प्राप्ति का साधन पूछा, किंतु धनप्राप्ति का संतोषकारक समाधान नहीं पा कर और वे रत्नाभूषण बहुत काल पूर्व राज्य के ही चोरी में गये हुए, नामांकित होने के कारण मामा-भानेज ही चोर ठहरे । उन्हें सत्य बोलने और अन्य चोर-साथियों का पता बताने के लिये कहा गया, तो उन्होंने कहा-"हम चोर नहीं हैं । हमें यह धन पृथ्वी में गढ़ा हुआ मिला है।" किन्तु उनकी बात नहीं मानी गई और उन्हें मार-पीट कर कारागार में बंद कर दिया और कठोर दंड दिया जाने लगा । इस
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