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________________ ६८ ক तीर्थंकर चरित्र भाग ३ ক কককককককককককককককককৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰু को तुड़वा कर बड़े बनवाना और इस प्रकार व्रत को मर्यादा बराबर रखने का प्रयत्न करना। गाय आदि पशुओं की मर्यादा के बाद गर्भ में रहे हुए के जन्म से संख्या वृद्धि हो, तो उसे व्रत की एक वर्ष आदि काल की मर्यादा तक आने नहीं मान कर बाद में मानना क्षेत्र की संख्या नियत करने के बाद निकट के दूसरे क्षत्र को ले कर उसमें मिला देना और संख्या उतनी ही रखना। इसी प्रकार घर की सख्या रख लेने के बाद आसपास का घर ले कर बीच की दीवाल गिरा कर एक ही गिनना । इसी प्रकार सोना-चाँदी में अभिवृद्धि होने पर भी उसे व्रत के अनुकूल बनाने का प्रयत्न करना। इन सब में व्रत पालन के भाव रहने के कारण ही अतिचार माना है । यदि व्रत की अपेक्षा नहीं हो, तो अनाचार हो जाता है । उपरोक्त पांच 'अणुवत' कहलाते हैं । अब गुणव्रत बताये जाते हैं ; ६ दिशा-गमन परिमाण व्रत-अपनी प्रवृत्ति के क्षेत्र को सीमित करने के लिए ऊँची, नीची और तिर्यक दिशा में गमन करने का परिमाण कर के शेष सभी दिशाओं में जाने का त्याग करना । इससे अपनी आरम्भिक सावद्य प्रवृत्ति सीमित क्षेत्र में ही रहती है। दिशा-गमन परिमाण व्रत के अतिचार-१ ऊँची २ नीची ३ तिरछी दिशा के परिमाण - का उल्लंघन करना ४ एक ओर की दिशा कम कर के दूसरी ओर बढ़ाना और ५ प्रत्याख्यान के परिमाण को भूल जाना । जैसे-प्रत्याख्यान की सीमा को भूल कर विचार में पड़ जाय कि मैने ५० कोस का परिमाण किया है या १०० का ? इस प्रकार सन्देह रहते हुए ५० कोस से आगे जाना। ७ उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत-अपने खाने-पीने, पहिनने-ओढ़ने, स्नान-मंजन, तेल-इत्र, शयन-आसन एवं वाहनादि भोगोपभोग के साधनों को मर्यादित रख कर शेष का त्याग करना। भोगोपभोग परिमाण व्रत के पाँच अतिचार-१ सचित्त भक्षण-अनजानपने में उस सचित्त वस्तु का सेवन करना-जिसका त्याग किया है २ सचित्त प्रतिबद्धाहार • जो 'धर्म संग्रह' की टीका में लिखा कि सचित्त और सचित प्रतिबद्धाहार ये दो अतिचार, कन्दमूल और फल की अपेक्षा से है और शेष तीन शालो आदि धान्य की अपेक्षा से है। "धर्म संग्रह' और 'योग शास्त्र' में इन पाँच अतिचारों में प्रथम के दो तो इसी प्रकार है, तीसरा है 'मिश्र ' जैसे-पूर्णरूप से नहीं उबला हुआ पानी, मिश्र धोवन, काचरा सचित धनियादि मिला कर बनाई हुई वस्तु, सचित्त तिल में मिले हुए अचित्त जौ आदि । ४ 'अभिषव आहार'-अनेक वस्तुएँ मिला कर बनाये हुए आसव आदि और पांचवा दुष्पक्वाहार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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