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पार्श्वकुमार समरांगण में
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शाली और धर्मपरायण थे । 'वामदेवी' उनकी पटरानी थी । वह सुन्दर, सुशील और उत्तम गुणों की स्वामिनी थी। पति की वह प्राणवल्लभा थी । नम्रता, सौजन्यता और पवित्रता की वह प्रतिमा थी । सुवर्णबाहु का जीव प्राणत स्वर्ग से च्यव कर चैत्र कृष्णा ४ की अद्धरात्रि को विशाखा नक्षत्र में महारानी वामदेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । माता ने तीर्थंकर जन्म के सूचक चौदह महास्वप्न देखे । महाराजा और महारानी के हर्ष का पार नहीं रहा । स्वप्नपाठकों से स्वप्न फल पूछा । तीर्थंकर जैसे त्रिलोकपूज्य होने वाले महान् आत्मा के आगमन की प्रतीति से वे परम प्रसन्न हुए । पौष - कृष्णा दसवीं की रात्रि को विशाखा नक्षत्र में पुत्र का जन्म हुआ । नीलोत्पल वर्ण और सर्प के चिन्ह वाला वह पुत्र अत्यन्त शोभनीय था। छप्पन दिशाकुमारियों ने सुतिका-कर्म किया । देव देवियों और इन्द्र-इन्द्रानियों ने जन्मोत्सव किया। महाराज अश्वसेनजी ने भी बड़े हर्ष के साथ पुत्र का जन्मोत्सव किया । जब पुत्र गर्भ में था, तब रात के अन्धकार में महारानी ने पति के पार्श्व ( बगल ) में हो कर जाते हुए एक सर्प को देखा था । इस स्वप्न को गर्भ का प्रभाव मान कर माता-पिता ने पुत्र का ' पार्श्व' नाम दिया। कुमार दूज के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगे । यौवन-वय प्राप्त होने पर वे भव्य अत्याकर्षक और नौ हाथ प्रमाण ऊँचे थे । उनके अलौकिक रूप को देख कर स्त्रियां सोचती - 'वह स्त्री परम सौभाग्यवती एवं धन्य होगी, जिसके पति ये राजकुमा रहोंगे ।'
पार्श्वकुमार समरांगण में
एक दिन महाराजा अश्वसेन राज्य सभा में बैठे थे। नीति और धर्म की चर्चा चल रही थी कि प्रतिहारी ने आकर नम्रतापूर्वक निवेदन किया;
"महाराज की जय हो । एक विदेशी पुरुष, स्वामी के दर्शन करने की आकांक्षा लिये सिंहद्वार पर खड़ा है । अनुग्रह हो, तो उपस्थित करूँ ।"
"हां, उसे सत्वर उपस्थित कर ।"
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एक तेजस्वी एवं सभ्य पुरुष महाराजा के सम्मुख आया और नमस्कार किया ।
वह प्रतिहारी के बताये हुए आसन पर बैठा । महाराज ने पूछा; --
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'कहिये, आप कहाँ से आये ? अपना परिचय और प्रयोजन बतलाइये । "
x त्रि. श. में 'अनुराधा' लिखा है ।
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