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________________ तीर्थकर चरित्र भा.३ कककककककककककककककककककककककककककककrprinition ४६ कर के उसी हेमगिरि की गुफा में भयंकर विषधर हुआ। वह यमराज के समान बहुत-से प्राणियों का संहार करने लगा। इधर-उधर भटकते हुए वह उन महात्मा के निकट आ पहुँचा । उन्हें देखते ही पूर्वभव का वर जाग्रत । हुआ वह क्रोधायमान हो कर मु'- श्री की ओर बढ़ा और उनके शरीर पर लता के समान लिपट कर अनेक स्थान पर डंक मारे। मुनिश्री ने सोचा--"यह सर्पराज मेरे कर्मों को भस्म करने में बड़ा सहायक हो रहा है।" उन्होंने धीरतापूर्वक उग्र वेदना सहन की और समाधिपूर्वक काल कर के बारहवें स्वर्ग के अम्बद्रमावर्त्त नाम के विमान में समृद्धिशाली देव हुए। उनकी स्थिति बाईस सागरोपम की थी। वह सर्प पापकर्मों का संग्रह कर के दावाग्नि में जल और “महाराषदक मर धूमप्रभा नरक में १७ सागरोपम प्रमाण आयुवाला नारक हुआ। वहां अपने पापों को महान् दुःखदायक फल भोगने लगा। वज्रनाभ का छठा-भव इस जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेहस्थ, सुगन्ध विजय में शुभंकरा नामक नगरी थी। वज्रवीर्य राजा उसके स्वामी थे । लक्ष्मीवती उनकी रानी थी। महात्मा किरणवेगजी का जीव अच्युत कल्प से च्यव कर राजमहिषी रूक्ष्मीवती के गर्भ में आया। पुत्र का नाम 'वज्रनाभ' दिया । कलाविद एवं यौवनवय प्रप्त होने पर पिता ने राज्याधिकार दे कर प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। रानी लक्ष्मोवती भी दीक्षित हो गई। राजा वज्रनाभ के भी एक तेजस्वी पूत्र हआ। उसका नाम 'चक्रायध था। महाराज वज्रनाभजी के हृदय में पूर्व के संयम के संस्कार जाग्रत हुए । युवराज के योग्य होते ही राज्याभिषेक कर दिया और आपने जिनेश्वर भगवान् क्षेमंकरजी के पास प्रवज्या अंगीकार कर ली। श्रुन का अभ्यास किया और गुरु आज्ञा से एकल-विहार प्रतिमा धारण कर के विचरने लगे। घोर तपस्या और कठोर चर्या से उन्हें आकाशगामिनी ल ब्धि प्राप्त हुई। एक बार वे सुकच्छ विजय में पधारे । सर्प का जीव पांचवीं नरक के असह्य दुःख भंग कर कितने ही भव करने के बाद सुकच्छ में ही ज्वलनगिरि की भयानक अटवी में 'कुरंगक' नामक भिल्ल हुआ। यौवनवय प्राप्त होने पर वह धनुष-बाण ले कर पशु पक्षियों को मारता हुआ विचरने लगा। महात्मा वज्रनाभजी भी हिंस्र एवं क्रूर जीवों से भरपुर उस ज्वलनगिरि पर पधारे और सूर्यास्त होते एक गुफा में प्रवेश कर ध्यानस्थ हो गये। हिंस्र-पशुओं की भयानक गर्जना, विचित्र किलकिलाहट और उलूक आदि पक्षियों को ककश-ध्वनि भी महात्मा को ध्यान से विच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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