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________________ ४४८................ तीर्थंकर चरित्र--भा. ३ अवनी पर आ कर प्रेमपूर्वक साथ बैठे हों। दोनों महापुरुषों का समागम देख-सुन कर लोग चकित रह गये और दौड़े हुए तिन्दुक उद्यान में आये । सहस्रों लोग एकत्रित हो गए । देव-दानव-यक्षादि भी कुतूहल वश उस स्थान पर आये और अदृश्य रह कर देखने लगें। महर्षि के शीकुमार श्रमण ने गौतम स्वामी से पूछा-- "हे महाभाग ! मैं आपसे प्रश्न पूछना चाहता हूँ।" "हे भगवन् ! आपकी इच्छा हो वह पूछिये ।" १ प्रश्न--"भगवान पार्श्वनाथजी और भगवान महावीर स्वामी--दोनों तीर्थंकर भगवान् एक मोक्ष के ही ध्येय वाले हैं और एक ही प्रकार के आचार-विचार वाले हैं, फिर भी इन दोनों परम्पराओं में चार याम और पांच महाव्रत की भेद रूप भिन्नता क्यों है ? यह भेद आपको अखरता नहीं है क्या"--केशीकुमार श्रमण ने पूछा। उत्तर--महात्मन् ! यह भेद धर्म का नहीं, मनुष्य की प्रकृति का है । प्रथम जिनेश्वर के समय के शिष्य (लोग भो) ऋजु-जड़ (सरल और अनसमझ) थे । उनको समझाना कठिन था । और अभी के लोग वक्र-जड़ (कुटिल एवं मूर्ख) हैं । इन से पालन होना कठिन होता है । ये वक्रतापूर्वक कुतर्क करते हैं। परन्तु मध्य के तीर्थकर भगवंतों के शासन के शिष्य ऋजु-प्राज्ञ (सरल और बुद्धिमान) रहे । वे थोड़े में ही समझ जाते थे और यथावत् पालन करते । इसीलिये यह चार और पाँच का भेद हुआ। वस्तुतः कोई भेद नहीं है । मध्य के तीर्थंकरों के शिष्य चार में ही पाँचों को समझ कर पालन करते थे। क्योंकि पाँच का समावेश चार में ही हो जाता है । अतः वास्तविक भेद नहीं है '--गौतम स्वामी ने उत्तर दिया। के शी स्वामी इस उत्तर से संतुष्ट हुए । वे आगे प्रश्न पूछते हैं-- २ प्रश्न--भगवान् वद्धमान स्वामी का 'अचेलक धर्म' है और भगवान् पार्श्वनाथ का प्रधान वस्त्र रूप है । यह लिंग-भेद क्यों हैं ?" उत्तर-- 'वेश और लिंग धर्मसाधना में सहायक होता है। विज्ञान से इनका औचित्य समझ कर ही आज्ञा दी जाती है । लिंग एवं उपकरण रखने के कारण हैं -१ ल क में साधुता की प्रतः ति हो २ सयम का निर्वाह हो, ३ जान-दर्शन के लिए लोक में लिंग का प्रयोजन है। निश्चय ही मोक्ष की साधना में तो जान-दर्शन और चारित्र ही का महत्व है। ३ प्रश्न--"गौतम ! आप सहस्रों शत्रुओं के मध्य खड़े हैं और वे आप पर विजय ये दा प्रश्न ही मामला बाह्य भेद से सम्बन्ध रखते हैं, शेष सभी प्रश्न आत्म-साधना संबंधी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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