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तीर्थंकर चरित्र-भा. ३
"स्कन्दक ! मेरे धर्मगुरु धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सवज्ञ-सवदी हैं । उनये किसी भी प्रकार का रहस्य छुपा नहीं है। उन्हीं ने मुझ में अभी कहा ।"
स्कन्दक गौतम स्वामी के साथ भगवान के निकट आये। तीर्थकर नामकर्म के उदय से भगवान का शरीर शोभायमान और प्रभावशाली था ही और उस समय भगवान के तपस्या भी नहीं चल रही थी। इसलिये विशेष प्रभावशाली था। स्कन्दक प्रथम दर्शन में हा आकर्षित हो गये । उनके हृदय में प्रीति उत्पन्न हई । वे आनन्दित हो उठ और अपने आप झुक गए। उन्होंने भगवान् की वन्दना की । भगवान ने उनके आगमन का उद्देश्य प्रकट किया और पिंगल निग्रंथ के प्रश्नों के उत्तर बताने लगे;--
"स्कन्दक ! लोक चार प्रकार का है- द्रव्य २ क्षेत्र ३ काल और ४ भाव लोक । १ द्रव्यदृष्टि से लोक एक है और अंत सहित है। २ क्षेत्र से असंख्यय योजन प्रमाण है और अंतयुक्त है। ३ कालापेक्षा भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा । ऐसा कोई भी काल नहीं कि जब लोक का अभाव हो । लोक सदाकाल शाश्वत है, ध्रुव है, नित्य है, अक्षय है, अव्यय है यावत् अंत-रहित है। ४ भाव से लोक अनन्त वर्ण-पर्यव, गन्ध-रस-स्पर्श-संस्थानादि पर्याय से युक्त है
और अनन्त है । अर्थात् द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा सान्त और काल तथा भाव दृष्टि से अनन्त है।
इसी प्रकार एक जोव, द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा अन्त वाला और काल और भाव से अन्त-रहित है । सिद्धि और सिद्ध तथा बाल मरण, पंडितमरण सम्बन्धी भगवान् के उत्तर सुन कर स्कन्दक प्रतिबोध पाये । भगवान् का धर्मोपदेश सुना और अपने परिव्राजक के उपकरणों का त्याग कर निग्रंथ-श्रमण हो गये । वे सर्वसाधक हो, साधना करने लगे। उन्होंने एकादशांग श्रुत पढ़ा, द्वादश भिक्षुप्रतिमा का आराधना किया, गुणरत्न सम्वत्सर तप किया और अनेक प्रकार की तपस्या की। तपस्या से उनका शरीर रुक्ष, शुष्क, दुर्बल, जर्जर और अशक्त हो गया । एक रात्रि जागरणा में उन्होंने सोचा-"अब मुझ में शारीरिक शक्ति नहीं रही । मैं धर्माचार्य भगवान् महावीर की विद्यमानता में ही अंतिम साधना पूरी कर लूं।" प्रातःकाल भगवान् की अनुमति प्राप्त कर और साधुसाध्वियों से क्षमायाचना कर, कडाई स्थविर के साथ विपुलाचल पर्वत पर चढ़े और पादपोपगमन संथारा किया । एक मास का संथारा पाला और आयु पूर्ण कर अच्युत (बारहवें) स्वर्ग में देव हुए । वहाँ
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