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तीर्थंकर चरित्र--भा.३ Facककककक ककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककका
कुटुम्ब मिला, तब सुसुमा-हरण का ज्ञान हुआ। धन से नहीं, पर सुसुमा के हरण से सारा कुटुम्ब दुःखी था। प्रात:काल होते ही सेठ, कीमती भेंट ले कर नगर-रक्षक के पास गये । भेट देने के बाद अपनो दुःख गाथा सुनाई और विशेष में कहा--'महोदय ! चोरी गये हुए धन के लिए में चितित नहीं हूँ। मुझे मेरी प्रिय पुत्री ला दीजिये । चोरी का धन सब आमही ले लोजिएगा।' नगर-रक्षक ने तत्काल दल-बल सहित सिंहगुफा पर चढ़ाई कर दो और मार्ग में हो डाकू-दल से भिड़ गया । डाकू, रक्षक-दल की बड़ी शक्ति का अनुमान लगाया और प्राप्त धन फेक कर इधर-उधर भाग गये। किन्तु चिलात सुसुमा को लिये हुए भयानक वन में घुस गया। रक्षक-दल के साथ सेठ भी अपने पुत्रों सहित कन्या को मुक्त कराने आये थे। रक्षक दल तो डाकुओं द्वारा छोड़ा हुआ धन समेटने में लगा, किन्तु सेठ तथा उनके पुत्रों ने चिलात का पिछा किया । भागते हुए चिलात ने जब देखा कि 'अब सुसुमा को उठा कर भागना असंभव है, तो उस नराधम ने उसका सिर काट कर धड़ को फेंकता हुआ, झाड़ी में लुप्त हो गया।
जब धन्नासेठ और उनके पुत्रों ने, सुसुमा का शव देखा, तो उनके हृदय में वज्राघात हुआ। वे सभी मूच्छित हो कर गिर पड़े। मूर्छा मिटने पर उन्हें अपनी दुर्दशा का भान हुआ। वे भूख-प्यास से अत्यन्त व्याकुल और अगक्त हो गये थे। उनका पुनः राजगृह पहुँचना कठिन हो गया। बिना खान-पान के उनकी दशा भी अटवी में ही मर-मिटने जैसी हो गई । वहाँ न कुछ खाने का और न कुछ पीने का। क्या करें, बड़ी भयंकर समस्या उनके सामने खड़ी हई । जब अन्य कोई उपाय नहीं मुझा. तब धन्य ने अपने पुत्रों से कहा ;--
"समय मोहित होने का नहीं, समझदारी पूर्वक बच निकलने का है । यदि छह में से एक मर जाय और पाँच बच जाय तो उतनी बुरी बात नहीं है । छहों के मरने की बनिस्वत पाँच का वचना ठोक ही है । इसलिए पुत्रों! तुम मुझे मार डालो और मेरे रका का पान कर के और मांस का भक्ष ग कर के इस मृत्यु-संकट से बचो। इस समय तुम मेरा मोह छड़ दो। वैसे मेरी आयु भी अब थोड़ी ही रही है।"
"देव ! अप हमारे भगवान् तथा गुरु के समान पूजनीय हैं । आपके महान् उपकार से हम पहले से ही दबे हुए हैं । अब पितृ-हत्या का पाप कर हम संसार में जो वित रहना नहीं वहते । यदि आप मुझं मार कर मेरे रक्त-मोंस से अपना सब का बनाव करेंग ता
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