________________
४००
तीर्थंकर चरित्र-भा. ३ ............................ पश्चात् विनयपूर्वक कूणिक नरेश का सन्देश सुनाते हुए कहा;--
"महाराज ! राजबन्धु विहल्ल और वेहासजी रात्रि के समय चुपचाप निकल कर हस्ति रत्नादि सम्पत्ति सहित यहाँ आ गये हैं । मेरे स्वामी ने उन्हें लौटा लाने के लिये मेरे द्वारा आपसे सविनय निवेदन किया है । आप उन्हें लौटाने की कृपा करें।" ।
"अपनी शरण में आया हुआ एक सामान्य व्यक्ति भी भय स्थान पर धकेला नहीं जाता, तब ये दोनों तो मेरे दोहित्र हैं और मुझ पर विश्वास रख कर ही यहाँ आये हैं। इनकी रक्षा करना तो मेरा कर्तव्य है। इसके सिवाय ये दोनों मुझे पुत्र के समान प्रिय भी हैं। इन्हें लौटाने का विचार ही कैसे कर सकता हूँ ?"
“यदि आप दोनों राजबन्धुओं को लौटाना नहीं चाहते, तो कम से कम वह हस्ति और हार ही लौटा दें तो भी विवाद मिट जायगा"-दूत ने कहा।
-"दूत ! यह अन्याय की बात है। किसी तीसरे व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि दूसरे की न्यायपूर्ण सम्पत्ति छिन कर पहले-वादी को दे दे । जो मेरे दोहित्र की सम्पत्ति है, उसे मैं बरबस छिन कर कैसे दे सकता हूँ ? इसकी रक्षा के लिए ही तो वे यहाँ आये हैं । ये तो मुझ-से पाने के अधिकारी हैं । मैं इन्हें दान दे सकता हूँ, छिन नहीं सकता।
"गजराज हार आदि इनके पिता ने इन्हें अपनी जीवित अवस्था में ही दिये हैं। इस पर इनका न्यायपूर्ण अधिकार है। यदि ये राज्य की सम्पत्ति चुरा कर लाते, तो अवश्य अनधिकारी होते और दण्ड के पात्र भी। अब इन वस्तुओं को पाने का एक ही न्याय पूर्ण माग है । यदि कूणिक अपने राज्य का आधा भाग इन्हें दे दे, तो ये वस्तुएँ उसे दी जा सकती है"-राजा ने उत्तर दे कर दूत को यथोचित सम्मान के साथ लौटा दिया।
दूत ने कूणिक नरेश को चेटक नरेश का उत्तर सुनाया तो कूणिक ने पुन: दूत को भेज कर विनम्र निवेदन कराया कि--
"राज्य में जो भी उत्तम रत्नादि उत्पन्न होते हैं, उन पर राज्याधिपति का अधिकार होता है, क्योंकि वह रत्न राज्य की शोभा है। इसलिए सेचनक गजराज और रत्नहार पर मेरा अधिकार है। कृपया ये दोनों वस्तुएँ हमें दीजिये और विहल्ल वेहास को लौटा दीजिये।"
दूत द्वारा कूणिक का सन्देश सुन कर चेटक नरेश ने कहा;--
"मेरे लिए तो जैसा कूणिक है, वैसे ही विहल्ल-हास हैं । ये तीनों बन्धु मेरी पुत्री चिल्लना और जामाता श्रेणिक नरेश के पुत्र हैं । परन्तु कूणिक का पक्ष न्याय पूर्ण नही है। यह सत्य है कि सेचनक हस्ति और हार राज्य में उत्तम रत्न है, परन्तु इन रत्नों को तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org