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________________ कणिक ने श्रेणिक को बन्दी बना दिया कक्कनकायकककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक मनुष्य को पिता के पास भी नहीं जाने देता था। उसने केवल अपनी माता को ही पिता से मिलने की अनुमति दी थी। पुत्र से वन्दी बनाया हुआ श्रेणिक उमो प्रकार विवश था जिस प्रकार दृढ़ बन्धनों में बंधा गजराज और पिंजरे में पड़ा सिंह होता है । श्रेणिक आर्त रौद्र ध्यान में ही लगा रहता था। एक दिन कूणिक माता को प्रणाम करने गया । माता को शोक संतप्त देख कर कारण पूछा+ | माता ने कहा;-- "कुलकलंक ! तेरे पिता को भी तू बहुत अधिक प्रिय था। जब तू गर्भ में था और तेरी दुष्टात्मा ने पिता के हृदय का मांस माँगा, तो तेरी तुष्टि के लिए उन्होंने अपना मांस दिया । तब से मैं तुझे कुलांगार और पिता का शत्रु मानने लगी थी। मैंने गर्भ में ही तेरा विनाश करने का भरसक प्रयास किया, परतु तु नहीं मरा। तेरा जन्म होते ही मैने तुझे वन में फिकवा दिया। वहाँ कुर्कुट के पंख से तेरी अंगुली कट गई। तेरे पिता को ज्ञात होते ही वे वन में गये और तुझे उठा लाये और मेरी बहुत भर्त्सना की तथा पालन करने का आदेश दिया । मैं तेरा पालन करने लगी, परन्तु उपेक्षा पूर्वक । कुर्कट से वट' हुई उगली जब कर्मवन्धन हो। हाँ. तपस्वी ने अवश्य वैर लेने का बन्ध किया था। हो सकता है कि श्रेणिक के इस निमित्त से अन्य वैसा गाढ़ कर्म उदय में आया हो ? रहस्य ज्ञानीगम्य है । + ग्रन्थकार लिखते हैं कि--पिता को बन्दी बना कर कणिक राज्य का संचालन करने लगा। उसकी रानी पद्मावती ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। बधाई देने वाली दासी को कृणिक ने भरपूर पारितोषिक दिया और तत्काल अन्तःपुर में पहुँचा। सौरिगृह में जा कर बच्चे को उठा लिया और देख कर आनन्दित हो गया। वह एक श्लोक बोलने लगा, जिसका भाव था "हे वत्स ! तू मेरे अंग से उत्पन्न हुआ है और मेरे हृदय के स्नेह से तू सिंचित है। इसलिये तू मेरी आत्मा के समान है । हे पुत्र । तू सुदीर्व एवं पूगाय प्राप्त कर ।" इस प्रकार बार-ब र बोलता हुआ वह अपने हृदय के हर्ष को उगलने लगा। पुत्र का जन्मोत्सव कर के उसका नाम 'उदायी' रखा। कालान्तर में एक दिन जब वह भोजन करने बैठा, तो शिश को अपनी बाँयी जंघा पर बिठा दिया। भोजन करते-करते बच्चे ने मत दिया, जिसकी धार भोजन की थाल में गिरी। मोहाधीन कणिक हँसता हुआ बोल उठा--"वाह, पुत्र ! तुने मेरे भोजन को घृत पूरित कर दिया।" वह मूत्र से आर्द्र हुए अंश को एक ओर हटा कर शेष खाने लगा। पुत्र-स्नेह मे उसे वह भोजन भी स्वादिष्ट एवं रुचिकर लगा। उस समय माता चिल्लना सामने ही बैठी हुई देख रही थी। उसने माता से पूछा ;-- "माता ! जितना उत्कट स्नेह मुझे इस पुत्र पर है, उतना संसार के किसी अन्य पिता को अपने पुत्र पर होगा?" For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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