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प्रणाम कर कहने लगे; -
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कूणिक ने श्रेणिक को बन्दी बना दिया
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' पूज्य ! मुझे आज्ञा दीजिये । मैं निग्रंथ दीक्षा ग्रहण करूँगा ।"
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'अभय ! तुम राज्यभार वहन करने के योग्य हो । तुम्हारे भाइयों में ऐसा एक भी नहीं है जो मगध साम्राज्य को संभाल सके, रक्षा कर सके और शान्ति तथा न्याय से प्रजा को संतुष्ट रख सके। इसलिये मैं तुम्हारा राज्याभिषेक कर के निश्चित होकर रहूँ ।" "नही, पूज्य ! आप जैसे भगवान् के भक्त का पुत्र होकर और भगवान् महावीर प्रभु जैसे परम तारक पा कर भी मैं संसार-सागर में गोते खाता रहूँ, तो मेरे जैसा अधम कौन होगा ? आप स्वयं धर्मप्रिय हैं और राज्य- वैभव तो अनित्य है । इसमें उलझ कर मनुष्य-भव बिगाड़ना कैसे उचित होगा ? "
'पिताश्री ! मुझ पर कृपा कर के अब शीघ्र आज्ञा दीजिये । आपकी कृपा से मेरा मनोरथ सफल हो जायगा ।"
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श्रेणिक नरेश स्वयं अप्रत्याख्यानावरण मोह के उदय विरत नहीं हो सकते थे, परन्तु धर्मरसिक तो थे ही। उन्होंने अभयकुमार को अनुमति दे दी । पिता की अनुमति प्राप्त कर अभयकुमार माता के समीप आये । माता से निवेदन किया । नन्दा देवी स्वयं भी संसार त्यागने को तत्पर हो गई। नरेश ने अभयकुमार और नन्दा देवी को महोत्सव पूर्व भगवान् के समीप ले जा कर दोक्षा दिलवाई। दीक्षित होते समय अभयकुमार और नन्दा देवी ने दिव्य कुण्डल और दिव्य वस्त्र विल्ल और वेहासकुमार को दिये ।
अभयकुमार संयम और तप का उत्तमतापूर्वक पाँच वर्ष तक पालन कर के आराधक हुए और साधना पूर्वक काल कर के विजय नाम के अनुत्तर# देवपने उत्पन्न हुए । वहाँ का आयु पूर्ण कर मनुष्य हो कर मुक्त होंगे ।
कूणिक ने श्रेणिक को बंदी बना दिया
अभयकुमार के दीक्षित होने के बाद श्रेणिक नरेश ने सोचा 'अब मेरा उत्तराधिकारी किसे बनाऊँ ? कौन पुत्र ऐसा है जो अभय के स्थान की पूर्ति कर सके और राज्य
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* अनुत्तरोववाई में मुनिराज अभयजी की गति 'विजय' अनुत्तर विमान की लिखी हैअमओ विजये ।" परन्तु ग्रन्थकार ' सर्वार्थसिद्ध' महाविमान की लिखते हैं । यह अप्रामाणिक है । प्रामाणिक तो आगम-विधान ही है ।
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