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________________ ३९१ कपिल केवली चरित्र FF FF FF ား FRPFFFFFFF " अहो ! कितना लोभ ! जहाँ में दो माशा स्वर्ण प्राप्त कर के ही संतुष्ट हो रहा था, वहीं अब तृष्णा बढ़ते-बढ़ते करोड़ सोनँये से भी आगे चली जा रही है ? कहाँ मैं दरीद्र, माता को छोड़ कर पढ़ने के लिये यहाँ आया और दुराचार फँस कर अब कोट्याधिपति बनने का मनोरथ कर रहा हूँ। अहो ! मैं कितना नीच कितना अधम हूँ । प्रशस्त आत्माएँ तो धन-सम्पत्ति और राज्य-वैभव छोड़ कर निष्परिग्रही एवं निस्संग बनती हैं और में मोहजाल में फँसता ही जा रहा हूँ ? नहीं, नहीं, मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, न धन और न स्त्री ।" कपिलजी का संसार के प्रति निवेद और धर्म के प्रति संवेग बढ़ा, एकाग्रता बढ़ी, क्षयोपशम की तीव्रता से तदावरणीय कर्म का बल टूटा और जानिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। उन्होंने वहीं केशों का लुंचन किया और साधु बन कर राज्य सभा में आये । राजा ने पूछा- -" कितना स्वर्ण चाहिए तुम्हें ?" --" राजन् ! मुझ कुछ नहीं चाहिए, दो माशा भी नहीं, दो रत्ती भी नहीं । आपके वरदान ने मुझे लाभ के शिखर पर पहुँचा दिया था । मैं करोड़ों सोनेये तक बढ़ गया था | जब आपका खुला वचन मिल गया, तो कम क्यों माँगू ; - "L 'जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ । " दो मासकयं कज्जं, कोडीए वि ण गिट्टियं ॥ लाभ से लोभ बढ़ता रहता है । मैं दो मार्श स्वर्ण के लिये घर से निकला था, परंतु तृष्णा बढ़ते-बढ़ते कोटि स्वर्ण मुद्राओं से भी नहीं रुकी । फिर मेरे विचारों ने मोड़ लिया और में पाप के मूल लोभ को त्याग कर निग्रंथ श्रमण हो गया हूँ । अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिये ।" Jain Education International 66 राजा ने कहा; -- '' मैं आपको कोटि सोनेये दूँगा । आप इच्छानुसार भोग भोगें । प्राप्त भोगों को छोड़ कर परभव में सुख पाने की कामना से साधु बनना उचित नहीं है ।" 'राजन् ! धन तो अनर्थ का मूल है। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है । मैं अ निग्रंथ हूँ और इसी की साधना में जा रहा हूँ । तुम भी धर्म का पालन करना ।" कपिल मुनि राज्य सभा से निकले और ममत्व-रहित, निःसंग, निस्पृह, एवं निरहंकारी हो कर उग्र तप करने लगे। छह महीने की साधना में ही, वे परम वीतराग हो कर सर्वज्ञ - सर्वदर्शी हो गए । वे राजगृह की ओर जा रहे थे । मार्ग में अठारह योजन प्रमाण भयंकर अटवी थी । उसमें एक डाकूदल रहता था। उस दल में ५०० डाकू थे । बलभद उस दल का नायक था । यह दल गाँवों, नगरों और पथिकों को लूटता और इस भूल-भुलैया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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