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अभय कुमार की निलिप्तता
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ही त्याग दें, तो साधु ही बनना पड़े। फिर इन रत्नों को ले कर करें ही क्या ? चला घर चलें । व्यर्थ ही आये और समय गवाया । तुम में साहस हो तो ले लो।"
--" में ले लूं और सन्त बन जाऊँ ? पहले पत्नी से पूछु , फिर पत्नी के होने वाले पुत्र का लग्न कर दूं, फिर सोचूंगा"--कह कर चलने लगा।
लोगों को खिसकते देख कर महामात्य ने कहा--
“क्यों, रत्नों के ढर नहीं लेना है ? आये तो रत्न लेने को ही थे। फिर खाली क्यों जाते हो ?"
___ "स्वामिन् ! आपकी शर्त बड़ी कठोर है । हम में इन रत्नों को लेने की शक्ति नहीं है । कोई भव्यात्मा ही ऐसा साहस कर सकती है ।" यही उत्तर था उस समूह का।
"तब रत्नों के ये ढेर उस लक्कड़हारे को दे दिया जाय, जिसने कल दीक्षा ली थी और जिसकी तम लोग निन्दा कर रहे थ? उन्होने तो बिना किसी लालच के संयम ग्रहण किया था, परन्तु तुम्हारे सामने तो धन का ढेर लगा हुआ है। फिर भी साहस नही हो रहा है । कहो, क्यों संयम पालना सहज है ?"
स्वामिन् ! हमारी भूल हुई । हम अज्ञानी हैं। हमसे अपराध हुआ है । हम अभी जा कर उन महात्मा से क्षमा माँगते हैं।"
महामन्त्री लोगों की भूल सुधार कर और रत्नों के ढेर उठवा कर राजभवन चले गये।
अभयकुमार की निर्लिप्तता
युवराज अभयकुमार समस्त मगध साम्राज्य का सञ्चालक था । कठिन परिस्थितियों में उसने राज्य को बिना युद्ध किय बचा लिया था और आक्रामक को भाग जाने पर विवश कर दिया था। महाराजाधिराज श्रेणिक, अभयकुमार की राज्य-व्यवस्था, राज्यतन्त्र के सुन्दर संचालन, प्रजा की सुख समृद्धि और राज्य के प्रति प्रजा की भक्ति एवं संपूर्ण विश्वास बढ़ाने में प्राप्त सफलता से प्रसन्न थे। महाराजा के मन में भगवान महावीर प्रभु और उनके धर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धा थी, भक्तिभाव था और वे धर्म की पूर्ण आराधना करने की भावना भी करते थे। परन्तु अप्रत्याख्यानी चौक के उदय से वे असमर्थ रहते थ । भगवान्, निग्रंथ गुरु और निग्रंथधर्म के प्रति श्रद्धा रखने आदर-बहुमान करने, भक्तिभाव रखने के अतिरिक्त वे त्याग कुछ भी नहीं कर सकते थे। उनसे कामभोग छोड़े नहीं जा
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